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३. लघु खरतर शाखा
(१. आचार्य श्री जिनसिंहसूरि)
आचार्य जिनपतिसरि के पट्ट पर जिनेश्वरसूरि विराजे । आपके दो प्रमुख शिष्य थे। एक श्रीमाल जिनसिंहसूरि और द्वितीय जिनप्रबोधसूरि। एक समय आप पालूपुर (पल्लू) की पौषधशाला में विराज रहे थे कि आपके दण्ड के तड़-तड़ शब्द के साथ अकस्मात् दो टुकड़े हो गए। यह जानकर आपने मन में सोचा कि मेरे पीछे संघ के दो भाग हो जायेंगे तो मैं स्वयं ही गच्छ-विभाग क्यों न कर दूँ? इन्हीं दिनों श्रीमाल संघ ने जिनके देश में कोई गुरु नहीं थे-महाराज की सेवा में जाकर प्रार्थना की। जिनेश्वरसूरि ने अपने पूर्व निश्चयानुसार श्रीमाल वंशोत्पन्न जिनसिंहसूरि को सं० १२८० में आचार्य पद और पद्मावती मंत्र देकर कहा कि "यह श्रीमाल संघ तुम्हारे अधीन है, संघ के साथ जाओ और उनके प्रान्त में अधिकाधिक धर्मप्रचार करो।" गुरुदेव की आज्ञानुसार आपने उस संघ के प्रान्त में विहार किया। उपकारी गुरुदेव के संबंध से उस सारे संघ ने आपको अपने प्रमुख धर्माचार्य रूप से सम्मानित किया।
(२. आचार्य श्री जिनप्रभसूरि
श्री जिनसिंहसूरि ने गुरुदेव श्री जिनेश्वरसूरि प्रदत्त पद्मावती मंत्र की आराधना करके छः मास में देवी को प्रत्यक्ष कर लिया। देवी ने आपसे कहा कि-"आपकी आयु थोड़ी है, विशेष लाभ की संभावना कम है।" इसी प्रसंग में देवी ने आपको भावी पट्टधर शिष्य होने योग्य व्यक्ति का संकेत किया, जो कि मोहिलवाड़ी निवासी श्रीमाल ज्ञातीय तांबी गोत्रीय महर्द्धिक श्रावक महीधर की धर्मपत्नी
खेतल देवी की कोख से उत्पन्न सब से छोटे पुत्र सुभटपाल थे। देवी के संकेतानुसार आपने उस ग्राम में जाकर साह महीधर की इच्छा और सम्मति से आचार्योचित्त सब शुभ लक्षणों से सम्पन्न सुविनीत सुभटपाल को दीक्षा दी। सं० १३४१ में किढिवाणा नगर में अपने पट्ट पर स्थापित करके "जिनप्रभसूर' नाम विख्यात किया।
गुरु कृपा से पद्मावती देवी आपको भी प्रत्यक्ष थीं। देवी की आज्ञानुसार आपने धर्मप्रचार तथा उन्नति के लिए दिल्ली प्रान्त में विहार किया। आपके गुण गौरव तथा माहात्म्य पर सुलतान कुतुबुद्दीन भी मुग्ध था। अट्ठाही, अष्टमी, चतुर्थी को सम्राट आपको सभा में आमंत्रित किया करता था।
१. यह समय भ्रान्त है, जिनप्रबोधसूरि का जन्म १२८५ और दीक्षा सं० १२९६ में है अतः जिनसिंह इनसे दीक्षा
पर्याय में छोटे होने चाहिए तभी "खरतर लघु शाखा" कहलाई। जिनसिंहसूरि के जन्म स्थान का नाम लाडनूं भी पाया जाता है।
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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