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________________ बादशाह मुहम्मद तुगलक के आह्वान से सं० १३८५ पौष शुक्ला ८ शनिवार को ये उससे मिले। आपकी अद्भुत प्रतिभा और अलौकिक पाण्डित्य से प्रसन्न होकर बादशाह ने आपका बहुत आदर किया और हाथी, घोड़े, राज, धन, देश, ग्राम आदि अर्पण करने लगा किन्तु साध्वाचार के विपरीत होने से आपने कोई वस्तु ग्रहण नहीं की। आपके त्याग की सुल्तान ने बड़ी प्रशंसा की और वस्त्र, कम्बल आदि से आपकी पूजा की। शाही मुहर का फरमान देकर नवीन उपाश्रय निर्माण कराया और अपने बैठने के प्रधान हाथी पर बड़ी सज-धज की सवारी के साथ आपको पुनः पौषधशाला में पहुँचाया। पद्मावती देवी के सान्निध्य से आपकी कीर्ति से दशों दिशाएँ धवलित हो गईं थीं। आप बड़े चमत्कारी और प्रभावक थे। आपके चमत्कारों में १. आकाश से कुलह (टोपी, घड़ा) को ओघे (रजोहरण) द्वारा नीचे लाना, २. महिष (भैंस) के मुख से वाद करना, ३. बादशाह के साथ वट (बड़) वृक्ष को चलाना, ४. शत्रुजय यात्रार्थ सम्राट आपके साथ संघ लेकर गया तब रायण वृक्ष से दूध बरसाना, सम्राट को संघपति पद देना, ५. दोरड़े से मुद्रिका प्रकट करना, ६. कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा की बादशाह से पूजन करवा कर प्रतिमा के मुख से आशीर्वचन बुलवाना आदि-आदि हैं। आपने अपने समय में जैन शासन की महती उन्नति और प्रचार किया। कहा जाता है कि आप प्रतिदिन एकाध नवीन स्तोत्र की रचना करने के पश्चात् आहार ग्रहण करते थे। संघ और तीर्थ रक्षा के लिए सम्राट से अनेकों फरमान प्राप्त किये थे। अनेक तीर्थों की यात्राएँ कर ऐतिहासिक प्रबन्ध लिखकर प्रवास को जो ऐतिहासिक रूप प्रदान किया था वह उनकी असाधारण प्रतिभा का द्योतक था। "कल्पप्रदीप" अपरनाम "विविधतीर्थकल्प" ग्रन्थ इसका प्रबल प्रमाण है। आप एक उच्चकोटि के चमत्कारी और स्व-पर सिद्धान्त के उद्भट विद्वान् एवं मौलिक साहित्य सर्जक थे। ३. जिनदेवसूरि-इनके पिता का नाम साह कुलधर और माता का नाम वीरिणी था। सुलतान मुहम्मद तुगतक के ऊपर आपका भी अच्छा प्रभाव था और पर्याप्त समय तक सम्राट के पास आप रहे भी थे। सम्राट भी आपको विशेष आदर दिया करते थे। जिनप्रभसूरि ने स्वयं इन्हें आचार्य पद प्रदान किया था। सम्राट द्वारा प्रवेश महोत्सव में सूरि जी के साथ आपको भी हाथी पर बैठना पड़ा था। सूरि जी ने अपने देवगिरि प्रवास के समय १४ साधुओं के साथ आपको सम्राट के पास दिल्ली में रखा था। जब ये छावनी में सम्राट से मिले तो सम्राट ने सम्मानपूर्वक एक बस्ती जैन संघ के निवासार्थ दी, साथ ही पौषधशाला व मन्दिर निर्माण करवा दिया जहाँ ४०० श्रावक परिवार रहने लगे। इसी मन्दिर में कन्यानयनीय चमत्कारिक महावीर प्रतिमा विराजमान की गई, जो १७वीं शताब्दी तक विद्यमान थी। आपके रचित कालिकाचार्य कथा व शिलोञ्छ नाममाला ग्रन्थ (सं० १४३३) उपलब्ध हैं। ४. जिनमेरुसूरि-आप जिनदेवसूरि के पट्टधर थे, आपके गुरु भ्राता श्रीचन्द्रसूरि थे। ५. जिनहितसूरि-जिनमेरुसूरि के पट्टधर थे, इनके रचित वीर स्तव (गा० ९), तीर्थमाला स्तव (गा० १२) व प्रतिमा लेख प्राप्त हैं। (२६६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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