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________________ हाथों में देना पड़ा। उपाध्याय जी ने इसके बदले में धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देने के साथ महाराजाधिराजश्री पृथ्वीचन्द्र की अनेक श्लोकों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की। रात भर शास्त्रार्थ होते रहने के कारण प्रात:काल वहाँ से उठकर शंख ध्वनि आदि वाजित्रों के पंच शब्द द्वारा बधाई लेते हुए तथा जयपत्र को लिये हुए मुनिमण्डली को साथ लेकर उपाध्याय जी आचार्य प्रवर श्री जिनपतिसूरि जी के पास आये। पूज्यश्री ने अपने शिष्य के द्वारा होने वाली जिन शासन की प्रभावना से बड़े हर्ष का अनुभव किया और बड़े आदर सत्कार के साथ जिनपालोपाध्याय को अपने पास बिठला कर शास्त्रार्थ सम्बन्धी सारी बातें ब्यौरेवार पूछी। सं० १२७३ जेठ वदि १३ के दिन श्री शांतिनाथ भगवान् के जन्म-कल्याणक के अवसर पर इस जय के उपलक्ष में वहाँ के श्रावकों ने बड़े हर्षपूर्वक एक बृहत् जयोत्सव मनाया। ६४. वहाँ (बृहद्वार) से सं० १२७४ में विहार करके आते हुए पूज्यश्री ने मार्ग में भावदेव मुनि को दीक्षा दी। सेठ स्थिरदेव की प्रार्थना स्वीकार करके "दारिद्रेरक" गाँव में चातुर्मास किया। वहाँ भी पहले की तरह नन्दी स्थापना की। सं० १२७५ में जाबालिपुर आकर जेठ सुदि १२ के दिन भुवनश्री गणिनी, जगमति तथा मंगलश्री इन तीन साध्वियों को और विमलचन्द्र गणि एवं पद्मदेव गणि इन साधुओं को दीक्षा दी। सं० १२७७ में पालनपुर आकर अनेक प्रकार की धर्म प्रभावनाएँ कीं। वहाँ पर महाराज के नाभि के नीचे स्थान पर एक गाँठ पैदा हुई। उसकी वेदना सताने लगी और इसी वेदना के कारण पेशाब की रुकावट हो गई। उसके अत्यन्त कष्ट से महाराज ने अपनी आयु शेष हुई जानकर चतुर्विध संघ को एकत्रित करके मिथ्या दुष्कृत किया और संघ को यथोचित शिक्षा देकर कहा-"आप लोग मन में कोई तरह से खेद न करें और यह भी नहीं समझे कि जो आचार्य जीते जी अनेक लोगों से शास्त्रार्थ करके धर्म प्रभावना करते रहे हैं, अब उनके बिना काम कैसे चलेगा? कारण, हमारे पीछे भी सर्वदेवसूरि, जिनहितोपाध्याय और जिनपालोपाध्याय आदि हमारी तरह सब यथोचित उत्तर देने में समर्थ हैं। यह आप लोगों के मनोरथों को पूरा कर सकेंगे। इनके अतिरिक्त वाचनाचार्य सूरप्रभ, कीर्तिचन्द्र, वीरप्रभ गणि और सुमति गणि ये चारों ही शिष्य महाप्रधान (श्रेष्ठ) तैयार हुए है। इनमें एक-एक का भी अपूर्व सामर्थ्य है, ये गिरते हुए आकाश को भी स्थिर रखने में समर्थ हैं। परन्तु जब हम अपने पाट के योग्य बैठाने में किसी को छाँटते हैं, तो हमारे ध्यान में वीरप्रभ गणि आता है। हमारे शरीर में इस समय बड़ी व्याधि है। इसलिए यदि संघ कहे तो अभी भी हम उसे अपने पाट पर बैठा दें।" ___शोक और हर्ष दोनों का द्वन्द्व जिनके चित्त में मचा हुआ है, ऐसे संघ ने पूज्यश्री से निवेदन किया कि-"महाराज! वैसे तो जो आपके समझ में आता है, वहीं हमें मान्य है। परन्तु इस वक्त जल्दी में की हुई आचार्य पद की स्थापना, जैसी चाहिए वैसी शोभा के साथ नहीं हो सकेगी। इसलिए यदि आपकी आज्ञा हो तो यहाँ के श्रीसंघ की ओर से भेजी हुई आमंत्रण पत्रिकाओं को देखकर आये हुए समस्त संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (११७) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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