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देशवासी खरतरगच्छीय संघ समुदाय की उपस्थिति में बड़े आनन्द के साथ पाट महोत्सव मना कर वीरप्रभ गणि को बड़े ठाठ-बाट के साथ आचार्य पद पर स्थापित किया जाय।"
पूज्यश्री ने कहा-"जो कुछ कर्त्तव्य समुदाय के ध्यान में आवे वही अच्छा है, हमको मान्य है।" इसके बाद सब लोगों से क्षमत-क्षामणा करके सब लोगों के चित्त में चमत्कार पैदा कर अनशन विधि के साथ श्री जिनपतिसूरि जी महाराज स्वर्ग को सिधार गये।
६५. तत्पश्चात् यद्यपि पूज्यश्री के वियोग से होने वाले परम दुःख से संघ का अन्त:करण किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया था, परन्तु उनके पीछे होने वाले देह संस्कार आदि कार्य को अत्यावश्यक समझ कर एक सुन्दर विमान में पूज्यश्री के शव की स्थापना कर उनके दाह-संस्कार के लिए तैयारी की गई। सं० १२७७ आषाढ़ शुक्ला दशमी को उस समय की प्रथा के अनुसार कर्ण को सुखदायक और हृदय को द्रवित कर देने वाली मेघ राग आदि रागिनियों को वारांगनाएँ गा रही थीं। उसी प्रकार प्राणहारी मृत्यु देव को उपालंभ देने वाले और भी नाना प्रकार के गायन गाये जा रहे थे। अनेक प्रकार के कमल गट्टा आदि वन फलों की उछाल हो रही थी। शंखादि पाँचप्रकार के तुमुल ध्वनि के बीच समस्त नागरिक लोगों के साथ चतुर्विध संघ के लोग महाराज की अर्थी को ले जा रहे थे।
इसी अवसर पर महाराज श्री की बीमारी के समाचार सुन कर श्री जिनहितोपाध्याय जी जाबालिपुर से त्वरित गति विहार करके वहाँ (पालनपुर) आ पहुँचे। कणपीठ (धानमण्डी) में आने पर उनको महाराजश्री की श्मशान यात्रा के दर्शन हुए। पूज्यश्री की यह अवस्था देखकर शोक विह्वल हो, उनके गुण-गणों को याद करके जिनहितोपाध्याय जी १६ श्लोकों से इस प्रकार विलाप करने लगे
श्रीजिनशासनकाननसंवर्द्धिविलासलालसे वसता। हा श्रीजिनपतिसूरे!, किमेतदसमञ्जसमवेक्षे? ॥ १॥ जिनपतिसूरे! भवता श्रीपृथ्वीराजनृपसदःसरसि। पद्मप्रभासिवदने नाऽरमिव जयश्रिया सार्धम् ॥ २॥ मथितप्रथितप्रतिवादिजातजलधेः प्रभो! समुद्धृत्य। श्रीसंघमनःकु ण्डे न्यधात् त्वमानन्दपीयूषम् ॥ ३ ॥ बुधबुद्धिचक्रवाकी षट्तर्कीसरिति तर्कचक्रेण। क्रीडति यथेच्छमुदिते जिनपतिसूरे! त्वयि दिनेशे॥ ४॥ तव दिव्यकाव्यदृष्टावेकविधं सौमनस्यमुल्लसति । द्राक् सुमनसां च तत्प्रतिपक्षाणां च प्रभो! चित्रम्॥५॥
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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