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________________ हार खाये हुए पण्डित मनोदानन्द का मुख मलिन देखकर राजाधिराज पृथ्वीचन्द्र ने विचारा"हमारे पण्डित मनोदानन्द जी की मुखच्छाया फीकी है, अगर यह राजपण्डित हार जायगा तो दुनिया में हमारी महान् लघुता सिद्ध होगी। इसलिए अभी उपस्थित जनता के आगे ही दोनों की समानता सिद्ध हो जाय तो अच्छा है।" ऐसा मन में निश्चय कर उपाध्याय जी की ओर लक्ष्य करके राजा कहने लगे-"आप बड़े अच्छे महर्षि महात्मा हैं।" वैसे ही मनोदानन्द जी की ओर मुख करके - "आप भी बड़े अच्छे पण्डित हैं।" पृथ्वीचन्द्र राजा के मुँह से यह वचन सुन कर उपाध्याय जी ने विचार किया-आज दिन से हम शास्त्रार्थ करने लगे थे, रात के तीन पहर बीत गये हैं। इस बीच हमने अनेक प्रमाण दिखलाए, अपनी दिमागी शक्ति खर्च की, लेकिन फल कुछ नहीं हुआ। हमने मनोदानन्द को पराजित करके उसकी जबान बंद कर दी, निरुत्तर बना दिया। फिर भी राजा साहब अपने पण्डित के पक्षपात के कारण दोनों की समानता दर्शा रहे हैं। अस्तु, कुछ भी हो, हमें जयपत्र लिये बिना इस स्थान से उठना नहीं चाहिए। स्कंधास्फालन पूर्वक उपाध्याय जी स्पष्ट बोले-महाराज! आप यह क्या कहते हैं, मैं कहता हूँ कि सारे भारत खण्ड में मेरे सामने टिकने वाला कोई पण्डित नहीं है। यदि यह मनोदानन्द पण्डित है तो मेरे साथ व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि किसी भी विषय में स्वतंत्रता से बोल सकता है। अगर इसकी शक्ति नहीं है, तो यह पौषधशाला वाले पत्र को अपने हाथ से फाड़ डाले। अरे यज्ञोपवीत मात्र को धारण करने की शक्ति वाले मनोदानन्द! श्री जिनपतिसूरि जी महाराज के ऊपर पत्र चिपकाता है, किन्तु रे बटुक, तुझे मालूम नहीं कि इन्होंने सभी विद्याओं में निर्णय देने वाले यानि सभी विद्याओं के पारगामी श्री प्रद्युम्नाचार्य जैसे पण्डितराजों को भी सब लोगों के सामने धूल फांकते कर दिए हैं। इसी अवसर पर श्री पृथ्वीचन्द्र महाराज ने स्वयं उस शास्त्रार्थ के आह्वान पत्र को लेकर फाड़ डाला। उपाध्याय जी ने कहा-महाराज! इस पत्र को फाड़ने मात्र से ही मुझे सन्तोष नहीं होता। राजा ने पूछा-आपको सन्तोष किस बात से हो सकता है? उपाध्याय जी ने उत्तर दिया-हमें सन्तोष जयपत्र मिलने से होगा। कारण? राजन् ! हमारे सम्प्रदाय में ऐसी व्यवस्था है कि जो कोई हमारे उपाश्रय के द्वार पर पत्र चिपकाता है, दूसरे दिन उसी पुरुष के हाथ से जयपत्र लिखवाकर अपने उपाश्रय के द्वार पर लगवाया जाता है। इसलिए महाराज! आपसे निवेदन है कि आप अपने न्यायाधीशों से सम्मति लेकर आपकी राजसभा में हमारी सम्प्रदायी व्यवस्था जैसे वृद्धि प्राप्त हो वैसे करिये। पण्डित मनोदानन्द जी की मुखच्छाया को मलिन हुई देखकर यद्यपि राजा को ऐसा करने में मानसिक बड़ा दुःख होता था, परन्तु सभा में बैठने वाले न्याय विचार में प्रवीण बुद्धिमान प्रधान पुरुषों के अनुरोध से राजा को अपने सरिश्तेदार के हाथ से जयपत्र लिखवा कर जिनपालोपाध्याय के (११६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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