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[हे पूज्य जिनपतिसूरि जी महाराज! नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के नाम को वहन करने वाले सुर गुरु (बृहस्पति) को मानो जीतने न गए हों वैसे आप स्वर्ग सिधार गए हो, परन्तु प्रश्न होता है कि अब आपके बिना जगत् की क्या हालत होगी? ।। १३ ।।] _ [हा हा! हे श्री जिनपतिसूरि जी महाराज! बड़ा ही खेद है कि इस प्रकार अकस्मात् आप जैसे सूर्य के अस्त हो जाने पर रंक समान इस नीति रूप चक्रवाकी (चकोरी) की क्या दशा होगी? ॥ १४ ॥]
[हथेली में स्थापित दीन (उदास) मुखवाली हे शासन देवी! तुम खेद मत करना, कारण? मैं मानता हूँ कि तुम्हारे पुण्य से आकृष्ट होकर आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी महाराज स्वर्ग सिधारे हैं ॥ १५॥]
- [अरे भाग्य! मैं मानता हूँ कि तूने जगत् की माता सरस्वती देवी को भी लज्जित कर दी, जो कि उसके सर्वस्वभूत मनुष्य श्री जिनपतिसूरि जी को तूने हर लिया॥ १६॥]
इत्यादि श्लोकों द्वारा अत्यन्त शोक पूर्ण हृदय से विलाप करते हुए उपाध्याय जी मूर्छित हो गए। मूर्छा हटने पर धैर्य धारण करके पूज्यश्री के चरणों में वन्दना करके स्वर्गवास के बाद साधु योग्य कृत्य करने के लिए जिनहितोपाध्याय जी साधु परिवार सहित श्रावक संघ के साथ शुद्ध स्थंडिल (श्मशान) भूमि पर आये। वहाँ पर अपने साधु नियम के अनुसार करने योग्य समस्त कार्य को करके उपाश्रय में आ गये। वहाँ पर गणधर श्री गौतमस्वामी आदि पूज्य पुरुषों के चरित्र का कीर्तन करके उपस्थित समस्त संघ को आह्लादित किया। इस स्थान पर यह भी समझ लेना चाहिए कि दाह संस्कार करके अन्य श्रावक लोग भी इस उपदेश में सम्मिलित हो गये थे। श्री जिनपतिसूरि जी महाराज के शिष्यों ने जाबालिपुर में जाकर चातुर्मास किया।'
| विशेष
जिनपतिसूरि : शाह रयणकृत 'जिनपतिसूरिधवलगीतम्' के अनुसार मरुमंडल के विक्रमपुर में वि०सं० १२१० चैत्र सुदि ८ के दिन इनका जन्म हुआ था। इनके माता-पिता का नाम यशोवर्धन और सुहवदेवी था, जो मालूगोत्रीय थे। इनका बचपन का नाम नरपति था। वि०सं० १२१८ फाल्गुण वदि १० के दिन भीमपल्लीपुर में जिनचन्द्रसूरि (मणिधारी) ने इन्हें दीक्षा दी थी। १. युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में "तत्पश्चातुर्मासी कृता जावालिपुरे" ऐसा उल्लेख है। इससे आचार्य श्री जिनपतिसूरि
जी के स्वर्गवास बाद ही आगत चातुर्मास सब साधुओं ने जावालिपुर किया हो यह संभव कम लगता है, कारण? आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी का स्वर्गवास आषाढ़ सुदि दशमी को हुआ था। तत्पश्चात् ३-४ दिन में जालौर पहुँचना संभव नहीं है। विशेष अनिवार्य संयोगों के बिना आषाढ़ चौमासे के बाद साधु का विहार संभव नहीं होगा। अत: संभावना यही है कि "ततः" शब्द से संवत् १२७७ का चातुर्मास पालनपुर कर संवत् १२७८ का चातुर्मास जालौर किया है और चातुर्मास के पश्चात् संवत् १२७८ माघ सुदी ६ के दिन वीरप्रभ गणि को आचार्य पद प्रदान किया गया हो।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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