________________
विभिन्न स्थानों पर अनेक आचार्यों के साथ इन्होंने ३६ शास्त्रार्थ किये थे और सभी में विजयपताका प्राप्त की थी। इसीलिये इनका विरुद षड़त्रिंशदवादिविजेता प्रचलित हो गया था। जयसिंह की राजसभा में भी इनका शास्त्रार्थ हुआ था। अनेक राजाओं ने इन्हें आदर प्रदान किया था और इनकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे। खरतरगच्छ की मान्य परम्परा के अनुसार इन्होंने अनेक जिन प्रतिमाओं की स्थापना की थी। जालन्धरा देवी को भी इन्होंने प्रसन्न किया था। मरुकोट्ट निवासी भंडारी नेमिचन्द्र ने १२ वर्ष तक इनके साथ ग्राम-नगरों में विचरण कर
के विशद्ध आचरण से प्रभावित होकर इनके पास दीक्षा ग्रहण की थी। (नाहटा-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ६-७)
श्रीजिनपतिसूरि पंचाशिका :- यह ५५ गाथा की प्राकृत भाषामय रचना है। इसमें रचयिता ने अपना नाम नहीं दिया है पर द्वितीय गाथा के “जिणवइणो निय गुरुणो" वाक्य से ज्ञात होता है कि यह रचना श्री जिनपतिसूरि जी के किसी शिष्य की ही है। आशापल्ली में प्रद्युम्नाचार्य के साथ शास्त्रार्थ का उल्लेख है अतः यह निश्चित है कि संवत् १२४५ के बाद की यह रचना है। इस कृति का सारांश है :-मरु मण्डल के विक्रमपुर निवासी यशोवर्द्धन की भार्या सूहवदेवी (जसभई) की कुक्षी से सं० १२१० की मिती चैत्र वदि ८ मूल नक्षत्र में आपका जन्म हुआ। बाल्यकाल में ही वैराग्य वासित होकर सं० १२१८ फाल्गुन वदि १० को अतिशय ज्ञानी सुगुरु जिनचन्द्रसूरि से दीक्षित हुए। गुरुदेव ने पहले से ही आपकी तीर्थाधिपतित्व की योग्यता का ख्यालकर जिनपति नाम निश्चय कर लिया था। बागड़ देश के बब्बेरकपुर में आपको आचार्य पद से अलंकृत किया। आप समस्त श्रुतज्ञान स्वसमय-परसमय के पारगामी और वादीभपंचानन थे। आपने अनेकों वादियों का दर्प दलन किया और शाकंभरी के राजा (पृथ्वीराज) के समक्ष "जयपत्र' प्राप्त किया। आशापल्ली में (शास्त्रार्थ-विजयज्ञरा) संघ को आनन्दित किया । आप गौतम स्वामी की भाँति लब्धिसम्पन्न, स्थूलिभद्र की भाँति दृढ़व्रती और तीर्थ प्रभावना में व्रजस्वामी की भाँति थे। आप वास्तविक अर्थों में युगप्रधान पुरुष थे। सं० १२२३ कार्तिक सुदि १३ को आपको आचार्य पद मिला था।
कवि भत्तउ रचित जिनपतिसूरिगीत के अनुसार इनका जन्मनक्षत्र मूल था। इनका दीक्षा सम्वत् भी १२१८ उल्लिखित है। अजमेर में जयसिंह की राजसभा में इनका शास्त्रार्थ हुआ था। अनेक बिम्बों की इन्होंने खरतर-विधि से प्रतिष्ठा की थी। जालन्धरा देवी को इन्होंने प्रसन्न किया था। (नाहटा-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ८-९)
सटीक हेमानेकार्थ संग्रह नामक पुस्तक की लेखन-प्रशस्ति के अनुसार धर्कट वंशीय पार्श्वनाथ का पुत्र गोल्ल श्रावक जिनदत्तसूरि सुगुरु की आज्ञा को चूड़ामणि की तरह धारण करता था। उसके चार पुत्र थे-लक्ष्मीधर, समुद्धर, मुणा और आसिग। आसिग के तीन पुत्र थे-वीरपाल, आशापाल और जयपाल । आशापाल जिनपतिसूरि का आज्ञाकारी था। इसके ३ पुत्र थे-कुलचन्द्र, वीरदेव और पद्मदेव । आशापाल की धर्मपत्नी सुष्मिणी ने यह ग्रन्थ वि०सं० १२८१ में लिखवाया था। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० १०)
(१२२)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
_Jain Education International 2010_04