________________
[हे प्रभो जिनपतिसूरि जी महाराज! आपने मथित (पराजित) किये हुए वादियों के विशाल समुदाय रूपी समुद्र में से आनंदरूप अमृत को उद्भट करके श्री संघ के मन रूपी कुण्ड में स्थापित कर दिया है ॥ ३॥]
_[हे जिनपतिसूरि जी महाराज! सूर्य जैसे आपका उदय होने पर विद्वान् लोगों की बुद्धि रूप चक्रवाकी (चकोरी) षड् दर्शनों की तर्क रूपी सरिता (नदी) में तर्क रूपी चक्र को लेकर इच्छानुसार क्रीड़ा करती है॥ ४॥]
[हे प्रभो जिनपतिसूरि जी महाराज! आश्चर्य है कि आपकी काव्य दृष्टि में यानि आपके रचित काव्यों को देख कर सज्जन व दुर्जन दोनों को एक ही समान सौमनस्य (हर्षोल्लास) उत्पन्ना होता है ॥ ५ ॥]
[हे जिनपतिसूरि जी महाराज! धातु व विभक्ति की अपेक्षा रखे बिना एवं अन्य विद्वानों से साधे न जाय वैसे क्लिष्ट क्रियाकलाप को भी आपने प्रतिवादियों के समक्ष जो सिद्ध कर बताया वह किसको चमत्कारकारक नहीं हुआ? यानि आपकी इस प्रकार अत्यद्भुत प्रयोग सिद्धि को देख कर सभी लोग आश्चर्य मुग्ध हो जाते हैं ॥ ६॥]
[हे जिनपतिसूरि जी महाराज! यहाँ भूतल पर मेरे विद्यामान रहते हुए मेरे समीप में यह (शुक्र) "कवि" ऐसे नाम को कैसे वहन कर रहा है? इस रोष से क्या असुराचार्य (शुक्र नाम के ग्रह) को जीतने के लिए आप स्वर्ग में सिधार गये हैं? ॥ ७॥]
[हे भगवन् जिनपतिसूरि जी महाराज! मैं मानता हूँ कि आपके स्वर्ग में जाते हुए देवांगनाओं ने हर्ष के कारण आपके सामने जो अक्षत उछाले वे ही आकाश मण्डल में तारे बन गये हैं ॥ ८॥]
[हे जिनपतिसूरि जी महाराज! मैं कल्पना करता हूँ कि इन्द्र के अनुरोध (आग्रह) से आप इस प्रकार अकस्मात् स्वर्ग सिधार गये हैं, कारण कि-सत्पुरुष दाक्षिण्यता (लिहाज) रूप धन वाले हुआ करते हैं॥९॥]
[हे पूज्य गुरुदेव जिनपतिसूरि जी महाराज! स्वर्गश्री के साथ आपका विवाह कार्य करने हेतु इन्द्राणी द्वारा बाँये पैर का प्रहार लगाने से उतरे हुए शराव संपुट के टुकड़े आकाश में निश्चय ही तारे, ग्रह व नक्षत्र रूप बन गये हैं ॥ १०॥]
[हे भगवन् जिनपतिसूरि जी महाराज! आप जन्म कल्याण के दिन जिनेश्वर भगवंतों को जन्माभिषेक कराने के लिए उत्कंठित हुए इन्द्र महाराजा जैसे पंचत्व (पाँच रूप) धारण करते हैं, वैसे आप भी जिनेश्वर देवों को जन्माभिषेक कराने की उत्कट इच्छा के कारण क्या पंचत्व (स्वर्गवास) को प्राप्त हो गए हैं? ॥ ११ ॥]
[हे गुरुवर्य श्री जिनपतिसूरि जी महाराज! जैसे मानसरोवर में हंस मोती चुगने को इधर-उधर घूमता है वैसे ही निश्चल आशा (दिशा या तृष्णा) रूप स्त्रियों ने आपके सामने उछाले हुए अक्षतों को चुगने के लिए चन्द्रमा आकाश में घूम रहा है ।। १२ ॥]
(१२०)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
___Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org