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पं० जिनेश्वर गणि ने उनसे कहा- "इस तरह पाठ मत करो किन्तु इस प्रकार करो।" यह सुनकर पुरोहित ने कहा-"शूद्रों को वेद पठन-पाठन का अधिकार नहीं है, तो तुम कैसे जान सके कि यह पाठ अशुद्ध है।" पण्डित जिनेश्वर ने कहा-"सूत्र और अर्थ से चारों वेदों को जानने वाले हम चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं।" तब प्रसन्न होकर पुरोहित ने पूछा-"आप कहाँ से पधारे हैं और यहाँ कहाँ विराज रहे हैं?" गणि जी ने उत्तर दिया-"हम दिल्ली प्रान्त से आये हैं और इस देश में हमारे विरोधी मनुष्य होने के कारण हमें कोई ठीक स्थान नहीं मिला है। अभी शहर के बाहर चुंगी घर में ठहरे हुए हैं। मेरे गुरु महाराज साथ हैं, हम सब अठारह मुनि हैं।" यह सुनकर पुरोहित ने कहा-"यह चतुःशाल वाला मेरा मकान है। इसमें एक तरफ पर्दा बाँधकर एक मार्ग-द्वार से प्रवेश करके एक शाला में आप सब सुखपूर्वक विराजें। भिक्षा के समय मेरा सेवक आपके साथ रहने से ब्राह्मणों के घरों से आपको सुखपूर्वक भिक्षा प्राप्त हो जावेगी।" इस प्रकार पुरोहित के आग्रह से ये लोग उसके चतुःशाल के एक भाग में आकर ठहर गये। तब यह बात पाटन शहर में फैल गई कि "वसति निवासी कोई नवीन यति लोग आये हैं।" स्थानीय देव-गृह-निवासी यतियों ने भी यह बात सुनी। उन्हें इनका आगमन अच्छा मालूम नहीं हुआ और उन्होंने सोचा कि यदि रोग को उठते ही नाश कर दिया जाय तो अच्छा है। तब उन्होंने अधिकारियों के बालकों को-जो उनके पास पढ़ते थे-बतासे आदि मिठाई देकर प्रसन्न किया और उनके द्वारा नगर में यह बात फैलाई-"ये परदेश से मुनि रूप में कोई गुप्तचर आये हैं, जो दुर्लभराज के राज्य के रहस्य को जानना चाहते हैं।" यह बात सारी जनता में फैल गई और क्रमशः राजसभा तक जा पहुँची। तब राजा ने कहा-"यदि यह ठीक है और ऐसे क्षुद्र पुरुष आये हैं तो इनको किसने आश्रय दिया है?" तब किसी ने कहा-"राजन् ! आपके गुरु ने ही अपने घर में ठहराया है।" उसी समय राजा की आज्ञा से पुरोहित वहाँ बुलाया गया। राजा ने पुरोहित से पूछा-"यदि ये धूर्त पुरुष हैं तो इनको तुमने अपने यहाँ क्यों स्थान दिया?" पुरोहित ने कहा-"यह बुराई किसने फैलाई है? मैं लाख रुपयों की बाजी मारने के लिए ये कौड़ियाँ फेंकता हूँ, इनमें दूषण सिद्ध करने वाला इन कौड़ियों का स्पर्श करे।" परन्तु कोई भी ऐसा न कर सका। तब पुरोहित ने राजा से कहा-"देव! मेरे घर में ठहरे हुये यतिजन साक्षात् मूर्तिमान धर्मपुञ्ज से दिखाई देते हैं, उनमें किसी प्रकार का दूषण नहीं है।" यह सुनकर सूराचार्य आदि स्थानीय चैत्यवासी यतियों ने विचार किया-"इन विदेशी मुनियों को शास्त्रार्थ में जीत कर निकाल देना होगा।" उन्होंने पुरोहित से कहा-"हम तुम्हारे घर में ठहरे हुए मुनियों के साथ शास्त्र विचार करना चाहते हैं।" पुरोहित ने कहा-"उनसे पूछकर जैसा होगा वैसा मैं उत्तर दूंगा।" फिर उसने घर जाकर उन मुनियों से कहा"महाराज! विपक्षी लोग आप पूज्यों के साथ शास्त्र-विचार करना चाहते हैं।" उन्होंने कहा-"ठीक ही है, तुम डरो मत और उनसे यह कहना-अगर आप लोग उनके साथ वाद-विवाद करना चाहते हैं तो वे श्री दुर्लभराज के सामने जहाँ तुम शास्त्रार्थ के लिए कहोंगे, वहाँ करने को तैयार हैं।" इसको सुनकर उन्होंने सोचा कि यहाँ के सब अधिकारी हमारी वशीभूत हैं, इनसे कोई भय नहीं है। अतः राजा के समक्ष राज-सभा में ही शास्त्र-विचार किया जाय। तब पञ्चासरीय पार्श्वनाथ भगवान् के बड़े
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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