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गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है।'
"साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति-मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं। इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या संप्रदाय की बाड से बद्ध नहीं है। वे जैन और जैनेतर वाङ्मय का समान भाव से अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं। व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अजैन ग्रंथों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकाएँ आदि रच कर तत्तद् ग्रंथों और विषयों के अध्ययन कार्य में बडा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है। खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहाँ पर बहुत ही संक्षेप में, केवल सूत्ररूप से, उल्लिखित कर रहे हैं।'
यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि श्वेताम्बर समाज के समस्त गच्छों द्वारा निर्मित साहित्य तुला के एक पलड़े में रखा जाए और दूसरे पलड़े में खरतरगच्छ के मनीषियों द्वारा साहित्य को रखा जाए तो खरतरगच्छ द्वारा निर्मित साहित्य का पलड़ा भारी रहेगा।
दिल्ली में आयोजित मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी समारोह, सन् १९६९ के समय मेरे द्वारा लिखित 'खरतरगच्छ साहित्य सूची' के नाम से एक संक्षिप्त पुस्तक प्रकाशित हुई थी। अतः इस सूची में नये ग्रंथों का समावेश कर, परिवर्तित एवं परिवर्धित कर, ग्रंथनामानुक्रम से और कृतिनामानुक्रम से प्रकाशित की जाए जो 'खरतरगच्छ बृहद् साहित्य-सूची' के नाम से प्रकाशित हो। लेखन और सम्पादन-पद्धति
खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास में निम्नलिखित लेखन-पद्धति अपनाई गई है(क) श्री जिनपालोपाध्याय ने श्री वर्धमानसूरि से लेकर जिनेश्वरसूरि द्वितीय के वि० सं० १३०५ तक का जीवन चरित 'खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि' के नाम से लिखा है और वि० सं० १३०६ से १३९५ तक का जिनेश्वरसूरि द्वितीय से लेकर जिनपद्मसूरि का वृत्तांत किसी प्रौढ़ विद्वान् श्रमण ने समासबहुल और सालंकृत भाषा में लिखा है। इसी को मूलाधार के रूप में स्वीकार करते हुए इस ग्रंथ का प्रामाणिक अनुवाद देने का प्रयत्न किया। जिनपालोपाध्याय की दीक्षा वि० सं० १२२५ में हुई थी और स्वर्गवास १३०७ में। अतः वि० सं० १२२५ से लेकर १३०५ तक का इतिहास आँखों देखी घटना के रूप में है। इसके पूर्व का इतिहास श्रवण-परम्परा पर आधारित है। वि० सं० १३०६ से १३९५ तक का इतिहास भी दैनंदिन डाइरी के समान इतिहास के रूप में आलेखित हुआ है। यह सामग्री मुद्रित पृष्ठ २०८ तक है। इस इतिहास के साथ कतिपय आचार्यों के सम्बन्ध में ग्रंथान्तरों एवं प्रशस्तियों से जो विशेष ज्ञातव्य प्राप्त होता है और इन आचार्यों के द्वारा प्रतिष्ठित शिलालेख और मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं, उनके शिलालेख भी विशेष के अन्तर्गत भिन्न टाईप में भिन्न रूप में दिये गये हैं। __ आचार्य जिनपद्मसूरि का शेष वृत्तांत वि० सं० १३९६ से लेकर जिनचन्द्रसूरि (वर्तमान) तक का स्वकथ्य
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