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________________ इतिहास मुख्यतः क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत खरतरगच्छ पट्टावली के आधार से लिया गया है। इसमें भी अन्य पट्टावलियों, ग्रंथांतरों, रासों, ग्रंथप्रशस्तियों और मूर्तिलेखों से जो विशेष जानकारी प्राप्त होती है वह टिप्पणी के रूप में दी गई है। यह सामग्री पृष्ठ २०९ से २५९ तक मुद्रित है। प्रौढ़ विद्वान् आचार्यों द्वारा निर्मित साहित्य का यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है। इन सब का उल्लेख 'खरतरगच्छ बृहद् साहित्य-सूची में किया गया है। (ख) खरतरगच्छ की जो मुख्य १० शाखाएँ हैं। उनमें से कई शाखाओं की पट्टावलियाँ और दफ्तर बहियाँ प्राप्त नहीं है जो पट्टावलियाँ प्राप्त हैं: वह भी बहुत संक्षिप्त में हैं। अतः मूर्तिलेखों एवं ग्रंथ-प्रशस्तियों के आधार पर लिखा गया है। यही कारण है कि कई आचार्यों के पदाभिषेक और स्वर्गवास सम्वत् भी प्राप्त नहीं हैं। आचार्य शाखा का इतिहास प्राप्त गुर्वावलि के आधार से लिया गया है। जिनरंगसूरि शाखा और जिनमहेन्द्रसूरि (मंडोवरा) शाखा का इतिहास यतिवर्य श्री रामपालजी एवं कोतवाल यतिवर्य मोतीचन्दजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर लिया गया है। यह सामग्री पृष्ठ २६० से ३२६ तक मुद्रित (ग) खरतरगच्छ की चार उप-शाखाओं का कोई क्रमबद्ध वृत्त प्राप्त नहीं है और न कोई गुर्वावली इत्यादि ही प्राप्त है, अतः स्फुट पत्रों, ग्रंथ-प्रशस्ति तथा लेखन प्रशस्तियों के आधार से जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसे ही देने का प्रयत्न किया गया है। क्षेमकीर्ति उपशाखा की तो शोध करने पर और भी परम्पराएँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी प्रकार जिनभद्रसूरि उपशाखा की भी यही स्थिति है। कीर्तिरत्नसूरि शाखा का इतिहास (मेरे संग्रह में सुरक्षित कीर्त्तिरत्नसूरि की उत्पत्ति, शंखवाल गोत्र की उत्पत्ति तथा वंश परम्परा लिखित है) के आधार पर दिया गया है। यह उपशाखाओं का इतिहास पृष्ठ ३२७ से ३५१ तक मुद्रित है। (घ) खरतरगच्छ की संविग्न परम्परा का इतिहास वर्तमान समय में चल रहा है अतः उससे सम्बन्धित आचार्यों के जीवन-चरित और पूज्य मुनिजनों से जो जानकारी प्राप्त हुई है उसे देने का प्रयत्न किया गया है और इसमें इनके वंश-वृक्ष भी दिये गये हैं। यह सामग्री पृष्ठ ३५२ से ३९८ तक मुद्रित है। (ङ) खरतरगच्छ साध्वी-परम्परा का प्राचीन इतिहास उपलब्ध नहीं है। खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली में उल्लिखित महत्तराओं, प्रवर्तिनियों एवं साध्वी वर्ग के जो भी नाम प्राप्त होते हैं, उनका संकलन लेख के रूप में डॉ० शिवप्रसाद ने किया था, वही मुद्रित किया है। (छ) सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का इतिहास उद्योतश्रीजी से लिया गया है। उनकी दो शिष्याएँ हुईं - लक्ष्मीश्रीजी और शिवश्रीजी। दोनों की परम्पराएँ पृथक्-पृथक् चल रही हैं। लक्ष्मीश्रीजी की शिष्या पुण्यश्रीजी हुई और उनकी परम्परा आज भी विशालरूप में चल रही है, अतः इस परम्परा की प्रवर्तिनियों एवं प्रमुख-प्रमुख साध्वियों का संक्षिप्त में परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। इसी प्रकार शिवश्रीजी की परम्परा भी आज विशाल रूप में विद्यमान है, उसकी प्रवर्तिनियों और प्रमुख-प्रमुख साध्वियों का परिचय दिया गया है। (४२) स्वकथ्य Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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