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है। मध्यकाल में तो इसका कोई इतिहास ही नहीं है। इसलिये गुर्वावली आदि के आधार पर कुछ नामों का उल्लेख अवश्य किया जाए।
(च) वर्तमान साध्वी समुदाय का इतिहास - सुखसागरजी के समुदाय का साध्वीवर्ग दो समुदाय में विभक्त है -
१. श्री लक्ष्मीश्रीजी का समुदाय २. श्री शिवश्रीजी का समुदाय। इन दोनों समुदायों का तथा वर्तमान समय में विद्यमान प्रमुख साध्वियों का परिचय दिया जाए।
श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का साध्वी समुदाय और खरतरगच्छीय मोहनलालजी महाराज का साध्वी समुदाय इस समय में विद्यमान नहीं है। भावी प्रकाशन योजना
खरतरगच्छ के गणनायकों, आचार्यों, उपाध्याय आदि पदधारकों, मुनियों, प्रवर्तिनियों, साध्वियों एवं श्रीपूज्यों तथा यतियों का सारे भारतवर्ष में निरन्तर विचरण रहा है। यही कारण है कि भारत के कोनेकोने में खरतरगच्छ का बाहुल्य रहा है। आचार्यों के उपदेश से श्रावक समुदाय ने बड़े-बड़े संघ निकाले। बड़े-बड़े तीर्थों पर नव-निर्माण करवाए, हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाईं। भारत के प्रमुख-प्रमुख तीर्थ भी खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित हुए हैं, किन्तु इन प्रतिष्ठित मूर्तिलेखों, शिलालेखों का एक स्थान पर संग्रह नहीं हुआ है, अतः अभी तक प्रकाशित समस्त लेख संग्रहों से खरतरगच्छ के लेखों का एकत्रीकरण किया जाए और वर्तमान में जो भी प्रतिष्ठाएँ हुई हैं, उनके लेख प्राप्त कर एक संकलन तैयार कर और उन लेखों को 'खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह' के नाम से प्रकाशित किया जाए। लगभग २,७६० प्रतिष्ठा लेखों का संकलन किया जा चुका है। खरतरगच्छ बृहद् साहित्य-सूची
खरतरगच्छीय मनीषियों द्वारा निर्मित साहित्य के सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी 'कथाकोश प्रकरण' के पृष्ठ ५ पर लिखते है :
'इस खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े बडे प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बड़े बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद, वैद्यकविशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढ़ाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक
और सांप्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्ति के सिवा, खरतरगच्छानुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटीबड़ी सैकड़ों-हजारों ग्रंथकृतियां जैन भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली है, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के
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स्वकथ्य
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