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हम प्रात:काल परिषदा में व्याख्यान देते हैं, दोपहर को ज्ञानकलश मुनि को जैनागम की वाचना देते हैं एवं उन्हें और मेरुनन्दन मुनि, ज्ञाननन्दन मुनि तथा सागरचन्द्र मुनि को साहित्य-लक्षणादि शास्त्र पढ़ाते हैं। नागपुर (नागौर) से दो छोटे लेख आपके पास भेजे। उसके बाद फलवद्धिका (फलौदी) में श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार किया। उसके बाद फिर नागौर में मोहण श्रावक द्वारा मालारोपण करवाया।
इसके बाद राजा खेत के परम प्रसाद पात्र साधुराज रामदेव श्रावक ने मेदपाट (मेवाड़) में हमें आमंत्रित किया। हम श्रावकों सहित कुशमानपुर (कोसवाणा) पहुँचे और जिनचन्द्रसूरि के चरणों से पवित्रित स्तूप को नमस्कार किया। शुद्धदन्तीपुरी (सोजत) में पाँच दिन ठहरे। आषाढ़ की प्रथम द्वादशी के दिन नदकूलवती (नाडोल या नाडोलाई) में श्री महावीर को नमस्कार किया। प्रात:काल श्रीमाल कुल के सा० भादा के पुत्र तोल्हा श्रावक ने महोत्सव से अपने स्थान पर बुलाया और हमने विधिपूर्वक वर्ष-ग्रन्थि पर्व मनाया। वहाँ पन्द्रह दिन ठहरे। फिर पैदल सिपाहियों सहित साधुराज रामदेव हमें लेने आया। दो प्रहर में सब मार्ग को पार कर हमने मेवाड़ के कपिल पाटक (केलवाड़ा) नामक सुसज्जित नगर में श्री विधिबोधिद विहार के श्री करहेटक (करहेड़ा) पार्श्वनाथ की सादर वन्दना की और वहाँ चातुर्मास किया। मार्गशीर्ष के प्रथम षष्ठी के दिन श्री भागवती दीक्षा महोत्सव हुआ। दीक्षाएँ ये थीं :पूर्व नाम
दीक्षा नाम १. चौरासी गाँवों में अमारि घोषणा कराने के लिये प्रसिद्ध मंत्रीश्वर
अरसिंह की संतान बोथरा गोत्रीय लाखा का पुत्र धीणाक मंत्री कल्याणविलास मुनि मंडल सहित श्री जिनोदयसूरि ने अपनी पर्युपास्ति निवेदन की है।
विज्ञप्ति अयोध्या भेजी गई थी। उसका आठ श्रोकों में अच्छा वर्णन है। उस अनेक विशेषण-युता नगरी में रत्नसमुद्र गणि, राजमेरु मुनि (ये आगे चलकर श्री जिनराजसूरि हुए) स्वर्णमेरु मुनि, पुण्यप्रधान गणि आदि यतिवरों सहित श्री लोकहितसूरि विराजमान थे।
इससे पूर्व श्री रत्नसमुद्र मुनि द्वारा श्रावण (नभस) मास में लिखित विज्ञप्ति को प्राप्त कर श्री जिनोदयसूरि आदि अत्यन्त आनन्द प्राप्त कर चुके थे। उन्हें मालूम हो चुका था कि श्री लोकहिताचार्य ने उपदेशमाला का व्याख्यान करते हुए चातुर्मास व्यतीत किया है और पण्डित रत्नसमुद्र गणि, पं० सुवर्णमेरु मुनि, पण्डित राजमेरु मुनि आदि ने कर्मग्रन्थ पर किसी टीका का निर्माण किया है। उससे यह भी ज्ञात हुआ कि ठक्कुर चन्द के पुत्र मंत्रिदलीय वंशोद्भव राजदेव श्रावक द्वारा सूचित तीर्थ यात्रा में श्री लोकहिताचार्य मगधदेश में विहार प्रदेश के समुदाय को प्रसन्न करते हुए राजगृह पहुँचे और मुनिसुव्रत जिनेश्वर की वन्दना की। तदनन्तर वैभारगिरि एवं विपुलाचल पर जिन-प्रतिमाओं को नमस्कार किया। श्रावकों ने नवीन जिन-प्रासादों का निर्माण कर श्री ब्राह्मण कुण्ड और क्षत्रिय कुण्ड को विशेष रूप से भूषित किया। वहाँ से लौटकर विहारादि स्थानों में पहुँचे। पुनः वापिस जाकर वैभार और विपुलाचल पर जिन-प्रतिमाओं को नमस्कार किया और अनेक की सविस्तार प्रतिष्ठा की। वहाँ से होते हुए वे अयोध्या पहुँचे और पंच तीर्थों को नमस्कार किया। साधार श्रावक के आग्रह से उन्होंने वहीं चातुर्मास किया।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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