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________________ अन्यथा उसी वर्ष पट्टाभिषेक हो जाता क्योंकि श्री जिनलब्धिसूरि जी अंतिम शिक्षा दे ही गए थे। सं० १४१४ आषाढ़ वदि १३ के दिन स्तंभ तीर्थ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी का स्वर्गवास हुआ। कूपाराम रमणीय प्रदेश में आपका स्तूप निवेश किया गया। आचार्य श्री जिनोदयसूरि आपका जन्म सं० १३७५ में पाल्हणपुर निवासी माल्हू गोत्रीय साह रुद्रपाल की धर्मपत्नी धारल देवी की रत्न कुक्षि से हुआ था। आपका जन्म नाम समर कुमार (समरिग) था। सं० १३८२ में वैशाख सुदि ५ को भीमपल्ली के श्रीमहावीर विधि-चैत्य में पिता रुद्रपाल कृत उत्सव से बहिन कील्हू के साथ आचार्य प्रवर श्री जिनकुशलसूरि जी के कर कमलों से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम सोमप्रभ रखा गया। सं० १४०६ में जैसलमेर में श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने स्वहस्त से इन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। सं० १४१५ ज्येष्ठ कृष्ण' १३ को स्तम्भ तीर्थ में श्री अजितनाथ विधि-चैत्य में लूणिया गोत्रीय साह जैसल' कृत नन्दि महोत्सव द्वारा तरुणप्रभाचार्य ने आपकी पद स्थापना की। तदनन्तर आपने स्तम्भतीथ में अजित जिन-चैत्य की प्रतिष्ठा की तथा शजय तीर्थ की यात्रा की। वहाँ पर पाँच प्रतिष्ठाएँ की। आपने २४ शिष्य और १४ शिष्याओं को दीक्षित किया एवं अनेकों को संघपति, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य, महत्तरा आदि पदों से अलंकृत किया। इस प्रकार पंच पर्व (पाँचों तिथि) के उपवास करने वाले, बारह गाँवों में अमारि घोषणा कराने वाले तथा २८ साधुओं के परिवार के साथ अनेक देशों में विहार करने वाले आचार्यश्री का सं० १४३२ भाद्रपद वदि एकादशी को श्री लोकहिताचार्य को अपने पद योग्य अंतिम शिक्षा देकर पाटण नगर में स्वर्गवास हुआ। भक्त संघ द्वारा स्तूप प्रतिमा की स्थापना हुई। ___इनके विषय में विज्ञप्ति पत्र के आधार पर कुछ विशेष वृत्त ज्ञात हुआ है, यह विज्ञप्ति श्री जिनोदयसूरि जी के शिष्य मेरुनन्दन गणि ने लिख कर सं० १४३१ में अयोध्या में विराजमान श्री लोकहिताचार्य को भेजी थी। इसमें उन्होंने अपनी और गुरु जिनोदयसूरि जी की यात्रा का विस्तृत वर्णन दिया है। वे लिखते हैं : १. राजलाभ-सुदि १३, क्षमाकल्याण-आषाढ़ सुदि २, समयसुन्दरीय पट्टावली में आषाढ़ वदि १३ लिखा है। २. जयसोमीय गुरुपर्वक्रम तथा ज्ञानकलश कत रास आदि के अनसार पट्टाभिषेक महोत्सव दिल्ली निवासी श्रीमाल रुद्रपाल, नींबा, सधरा के पुत्र संघवी रतना पूनिग और शाह वस्तुपाल ने किया था। ३. इनकी दीक्षा सं० १३७४ कात्तिक वदि ६ को श्री जिनचन्द्रसूरि के कर-कमलों से उच्चापुरी में हुई, दीक्षा नाम भुवनहित था। आचार्य पद के अनंतर ये लोकहिताचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। आचार्य पद श्री जिनोदयसूरि ने दिया था। गच्छनायकों के साथ संभवतः इनका विचरण कम हुआ जिससे इनका इतिवृत अज्ञात है। किन्तु सं० १४३१ में आचार्य श्री जिनोदयसूरि के शिष्य मेरुनन्दन गणि ने अयोध्या में विराजमान आपको जो विज्ञप्ति पत्र भेजा था, उससे कुछ बातों पर प्रकाश पड़ता है। इसके बाद अणहिल्लपुर का वर्णन है। वहाँ से तेजकीर्ति गणि, हर्षचन्द्र गणि, भद्रशील मुनि, पण्डित ज्ञानकलश मुनि, धर्मचन्द्र मुनि, मेरुनन्दन मुनि, मुनितिलक मुनि, ज्ञाननन्दन मुनि, सागरचन्द्र मुनि आदि शिष्य संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२११) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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