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________________ उनके स्मारक स्तूप का निर्माण बड़े प्रशस्त रूप से करवाया। मुनि सहजज्ञान रचित श्री जिनचन्द्रसूर विवाहलउ के अनुसार आपने अपने अन्तिम समय में यशोभद्र मुनि को पट्टाभिषेक करने की शिक्षा दे गये थे। वे अष्टावधानी और बड़े विद्वान् थे। त्रिशृंगम की राजसभा में और सं० १३९३ के तीर्थ यात्रा में आप श्री जिनपद्मसूरि जी के साथ थे, जिसका उल्लेख आगे आया ही है। श्री जिनपद्मसूरि जी की पदस्थापना के समय ये महोपाध्याय थे। श्री जिनकुशलसूरि जी कृत चैत्यवन्दनकुलकवृत्ति पर आपने टिप्पण लिखा। १ शांतिस्तवन, २ वीतराग विज्ञप्तिका, ३, ४, ५ पार्श्वनाथ स्तवन, ६ प्रशस्ति आदि आपकी रचनाएँ भी प्राप्त हैं। आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि । श्री क्षमाकल्याण जी कृत पट्टावली में आपका जन्म छाजहड़ गोत्र में सं० १३८५ में और दीक्षा सं० १३९० में केवल पाँच वर्ष की उम्र में होने का लिखा है, वह वास्तव में भ्रामक है। मुनि सहजज्ञान रचित वीवाहलो के अनुसार आपका जन्म मरुदेश के कुसुमाण गाँव में मंत्री केल्हा की पत्नी सरस्वती की कोख से हुआ था। आपका नाम पाताल कुमार था। दिल्ली नगर से संघपति रयपति का विशाल यात्री संघ जब कुसुमाणे में आया तो मंत्री केल्हा भी उसमें सपरिवार सम्मिलित हो गए। यह संघ सं० १३८० में निकला था और उसमें मंत्री केल्हा के सम्मिलित होने का उल्लेख आगे आ चुका है। क्रमशः शत्रुजय पहुँचने पर तीर्थपति श्री ऋषभदेव प्रभु के दर्शन कर संघ ने अपना जन्म सफल माना। वहाँ गच्छनायक श्री जिनकुशलसूरि का वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर पाताल कुमार को दीक्षा लेने का उत्साह प्रकट हुआ, पर माता से अनुमति प्राप्त करना कठिन था। अन्त में किसी प्रकार माता ने प्रबोध पाकर आज्ञा दे दी और पाताल कुमार को सूरिजी ने वासक्षेप देकर उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया। यथासमय दीक्षा की तैयारियाँ होने लगी। मंत्री केल्हा ने चतुर्विध विधि-संघ की पूजा की। याचकजनों को मनोवांछित दान दिया। पाताल कुमार का वर घोड़ा निकला और वे दीक्षा लेने गुरु महाराज के निकट आये। गुरुदेव ने उन्हें आषाढ़ वदि ६ के दिन युगादिदेव के समक्ष महोत्सवपूर्वक दीक्षा दी और नाम यशोभद्र रखा। इनके साथ देवभद्र की भी दीक्षा हुई थी जिसका उल्लेख आगे आ चुका है। सं० १३८१ मिती वैशाख वदि ६ के दिन पाटण में प्रतिष्ठा महोत्सव के समय इनकी बड़ी दीक्षा होने का उल्लेख आगे यथास्थान आया है। आपने श्री अमृतचन्द गणि के पास विद्याध्ययन किया। यथासमय पढ़-लिखकर योग्यता प्राप्त होने पर श्री जिनलब्धिसूरि जी अपने अंतिम समय में यशोभद्र मुनि को अपने पद पर प्रतिष्ठित करने की शिक्षा दे गए। तदनुसार श्री तरुणप्रभसूरि ने सं० १४०६ मिती माघ सुदि १० को जैसलमेर में आपको गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया। पाट महोत्सव हाथी साह ने किया। सं० १४०४ में श्री जिनलब्धिसूरि जी के स्वर्गवास समय ये पास में नहीं थे, मालूम होता है। (२१०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_04
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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