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आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि
आचार्य श्री जिनपद्मसूरि जी के पट्ट पर श्री जिनलब्धिसूरि जी अभिषिक्त हुए। श्री तरुणप्रभाचाय कृत श्री जिनलब्धिसूरि चहुतरी के अनुसार आपकी प्रामाणिक जीवनी यहाँ प्रस्तुत है ।
माड देश के जैसलमेर महादुर्ग में यादव राजा जयतसिंह के राज्य में दुर्गस्थित पार्श्वनाथ जिनालय शाश्वत चैत्यों का ख्याल कराने वाला है । वहाँ ओसवाल वंश की नवलखा शाखा में धणसिंह श्रावक हुए जिनकी भार्यारत्न खेताही की कुक्षि से सं० १३६० मार्गसिर शुक्ला १२ के दिन अपने ननिहाल सांचौर में लक्खणसीह का जन्म हुआ । अणहिलपुर में विचरते हुए श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का उपदेशामृत पान कर सं० १३७० मिती माघ शुक्ला ११ को दीक्षित हुए। आपका नाम लब्धिनिधान रखा गया। श्री मुनिचन्द्र गणि के पास स्वाध्याय, आलापक, पंजिका, काव्यादि तथा श्री राजेन्द्रचन्द्राचाय के निकट नाटक, अलंकार, व्याकरण, धर्मप्रकरण, प्रमाण- शास्त्रों का अध्ययन कर मूलागमों का अभ्यास किया । दमयन्तीकथा, काव्यकुसुममाला, वासवदता, कम्मपयड़ी आदि शास्त्र पढ़े। श्री जिनकुशलसूरि जी के पास महातर्क खण्डनादि तथा तरुणप्रभाचार्य के साथ विषम ग्रन्थों का अभ्यास किया । इनके क्षान्त, दान्त आदि गुणों की कान्ति को देखकर वचन - कलादि से मुग्ध होकर सब लोग सिर धुनते हुए आश्चर्य प्रकट करते थे ।
सं० १३८८ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला ११ के दिन देरावर में श्री जिनकुशलसूरि जी ने इन्हें उपाध्याय पद से अलंकृत किया, जिसका वर्णन आगे आ चुका है। सं० १३८९ के चातुर्मास में इन्हें स्याद्वाद - रत्नाकर, महातर्क रत्नाकर आदि ग्रन्थों का परिशीलन करवाया था । इन्होंने प्रथम भुवनहितोपाध्याय को पढ़ाया एवं जनपद्मसूरि, विनयप्रभ, सोमप्रभ को प्रमाण, आगमादि विद्याओं का अभ्यास कराया। सं० १४०० के मिती आषाढ़ मास की प्रथम प्रतिपदा को पाटण के श्री शान्तिनाथ जिनालय में श्री तरुणप्रभाचार्य ने आचार्य प्रवर पूज्य श्री जिनपद्मसूरि के पद पर श्री लब्धिनिधानोपाध्याय को आचार्य पदाधिष्ठित कर श्री जिनलब्धिसूरि नाम प्रसिद्ध किया । इन्होंने गुजरात, मारवाड़, सवालक्ष, लाट, माड, सिन्धु, सौरठ आदि देशों में विचरण कर स्थान-स्थान पर महोत्सवादि द्वारा शासन प्रभावना की । चारों दिशाओं में शासन भवन के निमित्त चार पद बनाये। तीन उपाध्याय, चार वाचनाचार्य, ८ शिष्य साधु और दो आर्याएँ कीं। अपने प्रगटित गुण माहात्म्य से राय वणवीर, मालग प्रमुखादि से पद सेवा कराई। इस प्रकार अतिशयवान आचार्य महाराज ने अपना आयु शेष जान कर अपने पट्ट योग्य शिक्षा देकर सं० १४०४ मिती आश्विन शुक्ला १२ के दिन नागौर में समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। श्रीसंघ ने
१. खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय २३ में भी - " नवलख कुलि धणसीह नंदणु सुप्रसिद्धउ । खेताहि तिय कुखि जाउ, बहु गजर समिद्धउ ।" लिखा है। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ३५) आचार्य पद के लिए भी पृ० २६ के १० वें छप्पय में - " सयचउदह जिणलबधि सूरि पट्टहि सुप्रसिद्धउ, आषाढह वदि पड़वि, तहवि पट्टागम किद्धउ" लिखा है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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