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________________ यहाँ तक तो सारा वृत्तान्त "खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली" का ही प्रायः अनुवाद है। इससे आगे का वृत्तान्त उपाध्याय श्री मक्षमाकल्याण जी गणिवर रचित पट्टावल्यादि अन्यान्य साधनों के आधार पर लिखा गया है। आचार्य जिनपद्मसूरि जी के विषय में यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि एक बार जब वे यात्रार्थ श्री विवेकसमुद्रोपाध्याय आदि मुनियों के साथ बाड़मेर गये हुए थे तब वहाँ लघुद्वार वाले मन्दिरों में विशालकाय भगवान् महावीर की मूर्ति देख कर बाल्य स्वभाव से प्रेरित हो ये शब्द कहे कि बूहा णंढा वसही वड्डी अन्दरि किउं करि माणी ___ अर्थात् इतने छोटे द्वार वाले मन्दिर के अन्दर इतनी विशाल मूर्ति कैसे लाई गई है। इससे कितने ही श्रावकों को असन्तोष व अरुचि भी पैदा हुई, किन्तु शीघ्र ही विवेकसमुद्रोपाध्याय जी ने उसका समाधान कर दिया। इसके बाद जब आप गुजरात के लिए विहार कर रहे थे, उस समय मार्ग में सरस्वती नदी के किनारे ठहरे। तब एकान्त में यह चिन्ता हुई कि-"कल गुजरात पहुँच कर पत्तनीय संघ के सम्मुख धर्मदेशना देनी है और मैं बालक हूँ, कैसे धर्मदेशना दे सकूँगा?" तो सरस्वती नदी के किनारे ठहरने के कारण सरस्वती ने सन्तुष्ट होकर वरदान दिया और आपने प्रातः काल पाटण पहुँच कर "अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता" इत्यादि शार्दूलविक्रीड़ित छन्दोबद्ध नवीन काव्य का निर्माण कर उसका ऐसा सुन्दर विवचन पत्तनीय संघ के सम्मुख किया कि सब आश्चर्यचकित हो गए और आपको-"बाल धवल कूर्चाल सरस्वती" इस उपाधि से सुशोभित किया गया। सोमकुंजर कृत पट्टावली में-"कूर्चालि सरस्वती विरुद् पार्टाण जासु संघहिं दिद्धउ ॥ २६ ॥" लिखा है। संवत् १४०० में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन आपका अल्पायु में ही स्वर्गवास हो गया। विशेषा खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली में इनके द्वारा विभिन्न अवसरों पर प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। इनमें से एक प्रतिमा आज उपलब्ध है। इस पर उत्कीर्ण लेख निम्नानुसार है पार्श्वनाथ-पञ्चतीर्थीः सम्वत् १३९१ मा०स० १५ खरतरगच्छीय श्रीजिनकुशलसूरिशिष्यैः श्रीजिनपद्मसूरिभिः श्री पार्श्वनाथप्रतिमा प्रतिष्ठिता कारिता च मव० बाहि सुतेन रत्नसिंहेन पुत्र आल्हादि परिवृतेन स्वपितृव्य सर्व पितृव्य पुण्यार्थं । (नाहर, जैन लेख संग्रह, भाग-२, लेखांक १९२६, पार्श्वनाथ मन्दिर, करेड़ा) १. संभव है सूरि पद प्राप्ति के बाद प्रथम चातुर्मास जैसलमेर करके जब आप बाड़मेर पधारे उस समय की यह घटना हो, परन्तु विवेकसमुद्रोपाध्याय जी का स्वर्गवास जिनपद्मसूरि जी की दीक्षा से ६ वर्ष पूर्व सं० १३७८ ज्येष्ठ सुदि २ को हो चुका था। उनके स्थान पर लब्धिनिधानोपाध्याय जी हो सकते हैं जो आगे चलकर श्री जिनलब्धिसूरि नाम से इन्हीं के पट्टधर आचार्य बने। (२०८) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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