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________________ विहितं सुवर्णसारङ्गलोभिनाऽपि त्वयाऽद्भुतं राम!। यत्ते लङ्कापुरुषेण ननु ददे श्रीर्वरा सीता॥ [हे भूपति रामदेव! निश्चय ही सुवर्ण सारंग के लोभी होकर भी आपने अद्भुत कार्य किया है जो कि आपको लंका पुरुष ने उत्तम संपत्ति रूप सीता प्रदान की है। यानि सुवर्ण सारंग (सुवर्णमय मृग) के लोभी होने पर महाराजा रामचन्द्र की शील सौभाग्यादि उत्तम सम्पत्तिशाली आर्या सीता को लंका पुरुष (लंकाधिपति रावण) ने हर ली थी जबकि आप सुवर्ण सारंग (सोना या हस्ती अथवा सुवर्ण-शुक्लादि उत्तम वर्ण वाले हस्तियों) के लोभी होने पर भी लंका पुरुष ने आपको उत्तम संपत्ति रूप सीता प्रदान की है।] इस भावगर्मित आर्या (गाथा) को सुनकर सारी सभा आश्चर्य निमग्न हो गई। इसके बाद राजा साहब रामदेव ने तत्रस्थ सिद्धसेन आदि आचार्यों को बुलाकर उनके समक्ष राजसभा के कायस्थज्ञातीय पण्डित द्वारा कथित काव्य को विकट (स्पष्ट) अक्षरों में पूज्यश्री से लिखवाया। इस नूतन दृष्ट राजसभा में भी स्वभाव-सिद्ध-प्रगल्भता (हाजर जवाबीपन) को धारण करने वाले पूज्यश्री ने उस उल्लिखित काव्य को एक बार सरल रीति से बाँच कर पोंछ डाला। बाद में मुख द्वारा अविच्छिन्न वाग्धारा से नाममाला (कोष) को गुणते हुए स्वकर-कमल से उसी श्लोक को दूसरी बार वक्रता से लिख दिया। सभी सभासद लोग पूज्यश्री की ओर एकटक निगाह से निहारने लगे। इसके बाद पूज्यश्री ने आये हुए आचार्यश्री सिद्धसेनसूरि तथा सारंगदेव व्यास एवं महाराजा रामदेव के सभासद कायस्थ से उनके अभिमत भिन्न-भिन्न तीन श्लोकों के १-१ अक्षर लिखवा कर पोंछ डाले। फिर दूसरी बार तीसरी बार करते हुए यावत् तीनों श्लोक पूर्ण होने तक १-१ अक्षर आ० सिद्धसेनादि तीनों से पूज्य श्री लिखवाते गये और स्वयं पोंछते गये। यावत् तीनों श्लोक पूर्ण हो जाने पर अप्रतिम-प्रतिभाशाली पूज्य श्री जिनपद्मसूरि जी महाराज ने वे तीनों ही श्लोक सम्पूर्ण एक पट्टी पर लिख दिये। इस अत्युत्तम क्लिष्ट कार्य को करके पूज्यश्री ने अपने श्लोक (प्रशंसात्मक साधुवाद) रूप हंस को खेलने के लिए तीनों जगत् में भेज दिया। यानि इस अनन्य साध्य कार्य से सर्वत्र आपकी बड़ी भारी ख्याति हुई। इस प्रतिभा के चमत्कार को देखकर राजसभा के समस्त लोग कि-"यद्यपि इस विषम कलिकाल में सब लोगों की कलाएँ लुप्तप्राय हो गई हैं, फिर भी जिनशासन में अतिशय कला-कलाप को धारण करने वाले पूज्यश्री जैसे सूरिवर अब भी भूमण्डल पर वर्तमान हैं।" इस प्रकार महाराज का गुणवर्णन किया जाने लगा। इस भाँति पूज्यश्री ने राजा रामदेव की सभा में चमत्कार दिखला कर वहाँ से लौट कर श्रीसंघ के आवास स्थान पर पदार्पण किया। १२१. समस्त चतुर्विध संघ सहित पूज्यश्री वहाँ से चलकर चन्द्रावती नगरी आदि के मार्ग से चलते हुए बूजद्री स्थान में वापिस आए। वहाँ पर तीर्थ यात्रा में चतुर्विध संघ के सारे भार को निभाने वाले, बिना किसी कामना के सोना-चाँदी, वस्त्र, घोड़ा आदि मुख्य-मुख्य वस्तुओं के सुपात्र दान से अपने धन को सफल बनाने वाले संघपति सा० मोखदेव श्रावक ने महाराज उदयसिंह आदि राज्याधिकारी व नागरिक लोगों को सम्मुख लाकर गाजे-बाजे के साथ चतुर्विध संघ सहित रथस्थ देवालय का प्रवेश महोत्सव किया। पूज्यश्री ने अपने मुनि परिवार के साथ इसी स्थान पर चातुर्मास किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (२०७) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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