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भगवान् के भण्डार में डेढ़ सौ रुपये प्रदान कर धन का सदुपयोग किया। वहाँ से चलकर समग्र संघ चन्द्रावती नगरी आया। वहाँ पर सेठ झांझण, मंत्री कूपा आदि नगर निवासी उत्तम श्रावक वृन्द ने साधर्मी-वात्सल्य, श्रीसंघ-पूजा आदि के विधान से संघ का बड़ा सम्मान किया। संघ ने वहाँ भी इन्द्र आदि पद के ग्रहण से श्री युगादिदेव के मन्दिर कोश में दो सौ रुपये प्रदान किये। वहाँ से विदा होकर पूज्यश्री ने समस्त संघ के साथ आरासन नामक (कुंभारिया जी तीर्थ) स्थान में श्री नेमीश्वर आदि पाँच चैत्य रूप पंच तीर्थों को नमस्कार किया और श्रीसंघ ने इन्द्र-पदादि ग्रहण कर डेढ़ सौ रुपये वितरण किए। तदनन्तर श्री तारंगाजी तीर्थ में आकर समस्त यात्री दल ने श्री कुमारपाल भूपाल के कीर्तिस्तम्भ रूप अजितनाथ भगवान् को प्रणाम किया। वहाँ पर विशेष प्रकार से इन्द्र-पदादिग्रहण निमित्त दो सौ रुपये देकर धन को सफल किया। वहाँ से लौटकर श्रीसंघ त्रिशृंगम् आया। वहाँ पर मंत्रिवर सांगण जी के पुत्ररत्न मंत्री मंडलिक, मंत्री वयरसिंह, साह नेमा, साह कुमारपाल, साह महीपाल आदि स्थानीय श्रीसंघ ने महाराज श्री महीपाल के पुत्र महाराजा श्री रामदेव जी को ज्ञात कर उनकी आज्ञा से बड़े ही ठाठ-बाट के साथ श्रीसंघ का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया। वहाँ पर पूज्यश्री ने समस्त चतुर्विध संघ के साथ बड़े समारोह से समस्त जिन-मन्दिरों में दर्शन करने रूप चैत्य-परिपाटी की और श्रीसंघ ने अन्य स्थानों की तरह इन्द्र आदि पदों को स्वीकार कर डेढ़ सौ रुपये श्री पार्श्वनाथ भगवान् के मन्दिरों में भेंट चढ़ाये।
१२०. चारों दिशाओं से फैलने वाले महाराज के गुण-गण और कीर्ति सम्वाद को सुनकर राज- सभा के सदस्यों सहित महाराज रामदेव के हृदय में पूज्यश्री के दर्शन की उत्कण्ठा जागृत हुई और सेठ मोखदेव एवं मंत्री मंडलिक को कहा कि-"छोटी सी उम्र वाले होने पर भी आपके गुरु महाराज का भारी बुद्धि प्रकर्ष सुनने में आता है, इसलिए उनके दर्शनों के लिए मैं चलूँ अथवा तुम लोग उन्हें यहाँ मेरी सभा में लाओ।" उसके बाद सा० मोखदेव और मंत्री मंडलिक ने उपाश्रय में आकर बड़े आग्रहपूर्वक आचार्यश्री से विज्ञप्ति की। उनका विशेष आग्रह देखकर आचार्य महाराज श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय आदि साधुओं के परिवार के साथ महाराज रामदेव की सभा में पधारे। राजा रामदेव ने पूज्यश्री को दूर ही से आते हुए देखकर अपने राज सिंहासन से उठ कर पूज्यश्री की चरण वन्दना की और पूज्यश्री के बैठने निमित्त चौकी बिछवाई। पूज्यश्री ने शुभ आशीर्वाद दिया। मुनिराजों के विराजने के बाद श्री सारंगदेव नामक महाराज के व्यास ने जो वहाँ सभा में ही बैठा था, अपनी रची हुई संस्कृत कविता सुनाई और उसकी व्याख्या की। उनकी रचना में श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय जी ने क्रिया सम्बन्धी त्रुटि बतलाई। इस बात से राजा रामदेव के हृदय में आश्चर्य हुआ
और बारम्बार सभा में कहने लगे कि-"इन उपाध्याय जी महाराज की वाक्पटुता और समस्त शास्त्रों का रहस्य ज्ञान अलौकिक शक्ति का परिचायक है। इन्होंने हमारी सभा के प्रौढ़ विद्वान् व्यास जी की रचना में भी अशुद्धि दर्शा दी है।" इसी प्रकार अन्य सभासद भी आश्चर्य से अपना मस्तक धुनते हुए पूज्य श्री और उपाध्याय जी के गुणों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। पूज्यश्री ने तात्कालिक आर्या छंद से श्री रामदेव महाराज का वर्णन इस प्रकार किया
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खरतरगच्छ
प्रथम-खण्ड
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