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________________ अपने युगप्रधान पूर्वाचार्यों का अनुकरण करने वाले पूज्यश्री जिनपद्मसूरि जी महाराज ने अपने दैवी ज्ञान-बल से यात्रा की निर्विघ्नता को जान कर और तीर्थ-यात्रा धर्म-प्रभावना का सबसे बड़ा अंग है, सम्यक्त्व की निर्मलता का निदान है, यह सुश्रावकों को अवश्य करने योग्य है, ऐसा समझ कर मोखदेव श्रावक को अपनी ओर से अनुमति दी। पूज्यश्री का आदेश पाने पर सपादलक्ष और श्रीमालपुर आदि प्रान्तीय संघ के प्रधान पुरुष श्रेष्ठिवर्य साह बीजा, साह देपाल, साह जिनदेव, साह सांगा आदि स्वपक्षीय-परपक्षीय महानुभावों को तथा अन्य संघों को तीर्थ-यात्रा निमंत्रण के लिए कुंकुम पत्रिकाएँ भेज कर बुलाये। मार्ग में समस्त संघ की देखभाल निगाह-निगरानी का भार साह मूलराज और साह पद्मसिंह को सौंपा गया। सेठ मोखदेव ने तीर्थयात्रा में साथ चलने योग्य देवालय के आकार का एक रथ बनवाया, जिसमें चैत्र शुक्ला षष्ठी आदित्यवार के दिन श्री शान्तिनाथ भगवान् के बिम्ब की स्थापना करके महाराज से वासक्षेप करवाया। इसके बाद बड़े ठाठ-बाट से अठाई महोत्सव किया गया। बूजद्री निवासी सेठ काला, साह कीरतसिंह, साह होता, साह भोजा आदि विधि-संघ तथा मंत्री ऊदा आदि अन्य श्रावक संघों को साथ लेकर चैत्र सुदि पूर्णिमा के दिन शुभ मुहूर्त में देवालय सहित संघ ने प्रस्थान किया। पूज्यश्री भी श्री लब्धिनिधानोपाध्याय, वा० अमृतचन्द्र गणि आदि पन्द्रह मुनियों और जयर्द्धि महत्तरा आदि आठ साध्वियों को साथ लेकर संघ के साथ तीर्थ-यात्रा को चले। ११९. मार्ग में श्री बूजद्री संघ को सोलख (नागौर) प्रान्तीय संघ मिल गया। ये दोनों संघ मिलकर श्री नाणा तीर्थ में आये। वहाँ पर सेठ सूरा आदि मुख्य-मुख्य श्रावकों ने तथा सेठ मोखदेव ने इन्द्रपद आदि पदों को ग्रहण कर बड़ी प्रभावना की और श्री महावीर भगवान् के खजाने में दो सौ रुपये नगद देकर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया। इसके बाद शुभ शकुनों से अत्यधिक उत्साहित होते हुए और समस्त श्रीसंघ द्वारा होड़ा-होड़ से पूजित-सेवित पूज्य महाराज श्री तीर्थराज आबू पहुँचे। वहाँ पर अर्बुदाचल के अलंकार, सकल जन मनोहारक, भारतीय प्राचीन शिल्प कला के सार, प्रसिद्ध मन्दिर श्री विमल विहार, श्री लूण विहार, श्री तेजसिंह विहार के मूल अलंकारसम श्री ऋषभदेव एवं नेमिनाथ प्रमुख तीर्थंकरों की भक्ति-भाव से वन्दना की। वहाँ श्रेष्ठी मोखदेव आदि समस्त श्रीसंघ ने इन्द्र पद, अमात्यपद आदि पद-ग्रहण, महाध्वजारोपण, अवारित-सत्र आदि अनेक महोत्सव किये और पाँच सौ रुपये भगवान् के भण्डार में प्रदान कर अपने धन को सफल किया। वहाँ से चलकर आचार्यश्री ने समस्त श्रीसंघ सहित प्रह्लादनपुर के स्तूप में अलंकार समान युगप्रधान श्री जिनपतिसूरि जी महाराज की प्रतिमा को मुद्रस्थला ग्राम में आकर नमस्कार किया। इसके बाद जीरापल्ली में आकर समस्त संघ सहित पूज्यश्री ने जाग्रत प्रभावरूपी लक्ष्मी से सनाथ यानि प्रकट प्रभावशाली श्री पार्श्वनाथ भगवान् की वन्दना की। वहाँ पर श्रीसंघ ने इन्द्रपद आदि महोत्सव का विधान किया और १. जो कि सं० १२८० वैशाख शुक्ला १४ के दिन पालणपुर में ही आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी महाराज के शिष्यरत्न श्री जिनहितोपाध्याय जी के वरद कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवा के स्थानीय विधि-समुदाय के श्री संघ ने स्थापित की थी। संभव है पीछे से किसी अज्ञात कारण वश वही प्रतिमा मुद्रस्थला में लाकर स्थापित की गई हो। अतः उस प्रतिमा को वंदन निमित्त यह संघ श्री मद्रस्थला गया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२०५) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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