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________________ चक्रवर्ती की सेना तुल्य था, उसमें पूज्यश्री ही चक्रवर्ती सदृश एवं सेनापति के स्थानापन्न ठ० अचलसिंह जी थे। इस संघ ने मन्द मन्द यात्रा करते हुए हस्तिनापुर तक कई पड़ाव किए थे। इसके पीठ संरक्षक सेठ रुद्रपाल थे। संघ ने मार्ग में आने वाली यमुना नदी को अच्छी-अच्छी नावों में बैठ कर पार की थी। संघ हस्तिनापुर इसलिए गया कि वहाँ पर श्री शांतिनाथ, श्री कुन्थुनाथ, श्री अरनाथ नामक चक्रवर्ती तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्म, दीक्षा, ज्ञान आदि चार कल्याणक यथासमय होने से वहाँ की भूमि पवित्र समझी गई है। ८९. वहाँ पर साधु-संघ के शिरोमणि, चतुर्विध संघ समन्वित पूज्यश्री ने नये बनाये हुए स्तुति - स्तोत्र, नमस्कारोच्चारण पूर्वक शुद्ध भाव से श्री शांतिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ देवों की जन्म-जन्मान्तरित पापों को हरने वाली यात्रा की। और श्रीसंघ ने इन्द्र पद आदि ग्रहण करना, हरेक को बे रोक-टोक भोजन देना, साधर्मि वात्सल्यादि द्वारा सहधर्मी सेवा करना, श्रीसंघ-पूजा करना और याचकों को सोने-चाँदी के कड़ों एवं अन्न-वस्त्र का दान देना आदि नाना प्रकार के सुकृत करके कलिकाल में भी सतयुग की तरह सब को सुखी बनाने वाली और क्या स्वपक्ष- क्या परपक्ष सभी के चित्त को चमत्कृत करने वाली वीरशासन की बड़ी भारी प्रभावना की । वहाँ पर ठ० हरिराज के पुत्ररत्न, उदार चरित्र, देव गुरु आज्ञा पालक, ठ० मदनसिंह के छोटे भाई ठ० देवसिंह श्रावक ने बीस हजार जैथल ( उस जमाने का प्रचलित सिक्का) देकर इन्द्र पद ग्रहण किया । इसी प्रकार ठ० हरिराज आदि धनाढ्य श्रावकों ने मंत्रि आदि पद ग्रहण किये। देव भण्डार में सारे मिलाकर डेढ़ लाख जैथल इकट्ठे हुए । हस्तिनापुर में पाँच दिन जिनशासन की प्रभावना करके समस्त संघ श्री मथुरा तीर्थ की यात्रा के लिए रवाना हुआ। मार्ग में जगह-जगह उत्सवादि करता हुआ श्रीसंघ दिल्ली के पास वाले तिलपथ नामक स्थान में पहुँचा । इस समय पूज्यश्री की प्रतिष्ठा से कुढ़ने वाले, दुर्जन स्वभाव वाले द्रमकपुरीयाचार्य ने बादशाह कुतुबुद्दीन के आगे चुगली की कि - " जिनचन्द्रसूरि नामक साधु आपकी आज्ञा बिना ही सोने का छत्र धारण करते हैं और सिंहासन पर बैठते हैं।" यह संवाद सुनकर म्लेच्छ स्वभाव वाले बादशाह ने सारे संघ को रोक दिया और मुनि परिवार तथा संघपति ठक्कुर अचलसिंह के साथ पूज्यश्री को अपने पास बुलाया । पूज्यश्री के तेजस्वी मुख मण्डल को देखते ही न्याय के समुद्र और अपने प्रताप से समग्र पृथ्वी को जीतने वाले श्री अलाउद्दीन सुलतान के पुत्ररत्न श्री कुतुबुद्दीन सुलतान ने कहा - "इन श्वेताम्बर साधुओं में दुर्जनों की कही हुई एक भी बात नहीं घटती ।" पूज्य श्री को दीवान खाने में भेजते हुए सुलतान ने दीवान को कहा कि - " इन श्वेताम्बर साधुओं के आचार-व्यवहार आदि की अच्छी तरह जाँच कर जो झूठी शिकायत करने वाले अन्यायी हों, उन्हें दण्ड दिया जाय ।" प्रधान अधिकारी पुरुषों ने भली-भाँति न्याय-अन्याय की जाँच कर डर के मारे गुप्त स्थान में छिपे हुए चैत्यवासी द्रमकपुरीयाचार्य को पकड़ मँगवाया और राजद्वार पर खड़ा किया। सरकारी १. द्रमकपुर शहरादि के नाम से प्रवृत्त द्रमकपुरीय गच्छ के आचार्य जिनका नाम यहाँ नहीं दिया है। (१६२) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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