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उपा० जिनहर्ष के पट्टधर सुखवर्धन हुए जिन्हें वि०सं० १७१३ में जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा प्रदान की थी। इनके पट्टधर दयासिंह भी वि०सं० १७३८ में जिनचन्द्रसूरि द्वारा ही दीक्षित थे। दयासिंह के शिष्य रूपचन्द दीक्षानाम महोपाध्याय रामविजय को भी जिनचन्द्रसूरि ने ही वि०सं० १७५६ में दीक्षा दी थी। महो० रामविजय का जन्म नाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा। उस समय के विद्वानों में इनका मूर्धन्य स्थान था। ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे। तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि
और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के ये विद्यागुरु भी थे। सं० १८२१ में जिनलाभसूरि ने यतियों सहित संघ के साथ आबू की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे। इनके द्वारा निर्मित प्रमुख रचनायें निम्न है
गौतमीय महाकाव्य-(सं० १८०७) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है। गुणमालाप्रकरण-(सं० १८१४), चतुर्विशतिजिनस्तुतिपंचाशिका (सं० १८१४), सिद्धान्त चन्द्रिकासुबोधिनीवृत्ति पूर्वार्ध, साध्वाचारषट्त्रिंशिका, षट्भाषामयपत्र, भर्तृहरि-शतकत्रयबाला० (सं० १७८८), अमरुशतकबालावबोध (सं० १७९१), समयसारबालवबोध (सं० १७९८), कल्पसूत्र बालावबोध (सं० १८११), हेमव्याकरण भाषा टीका (सं० १८२२) आदि। फलौदी पार्श्व स्तवन, अल्प-बहुत्व स्तवन, सहस्त्रकूट स्तवनादि प्राप्त हैं। नब्बे वर्ष की परिपक्व आयु में सं० १८३४ में पाली (मारवाड़) में आपका स्वर्गवास हुआ, वहाँ आपकी चरण पादुकायें भी प्रतिष्ठित की गईं। पुण्यशील गणि:-ये रामविजयोपाध्याय के प्रथम शिष्य थे। दीक्षा नंदी सूची के अनुसार इनका जन्मनाम पदमो था और सं० १८०६ माघ वदि ७ या इसके आसपास ही जिनलाभसूरि के पास दीक्षा हुई थी। इनका दीक्षा नाम था पुण्यशील। ये भी अच्छे विद्वान् थे। इनकी एकमात्र कृति प्राप्त है- चतुर्विंशतिजिनेन्द्रस्तवनानि। इन्होंने इसकी रचना सं० १८५९ भाद्रपद शुक्ल ५ के दिन पाली में श्रेष्ठि भगवानदास के आग्रह से की थी। इस कृति की विशिष्टता यह है कि १२वीं सदी के महाकवि जयदेव रचित संगीतमय पदावली से ओतप्रोत "गीतगोविन्द" के अनुकरण पर लोकगीतों में गेय रागों एवं देशियों में संस्कृत भाषा में इन्होंने इस चौबीसी की रचना की है। इस कृति की एकमात्र प्रति मेरे निजी संग्रह में है और मैंने ही सं० २००४ में संशोधन कर प्रकाशित करवाई थी।
इनके शिष्य समयसुन्दर गणि और इनके शिष्य हुए उपाध्याय शिवचन्द्र। इनको गणि एवं उपाध्याय पद जिनचन्द्रसूरि ने अथवा जिनहर्षसूरि ने प्रदान किया होगा। इन्होंने तत्कालीन आचार्य जिनहर्षसूरि के साथ कई वर्षों तक रहकर उन्हें पढ़ाया था। इन्हीं के साथ रहते हुए इन्होंने सं० १८७१ में भाद्रपद वदि १० को अजीमगंज में बीसस्थानक पूजा की रचना की।
इनकी संवतोल्लेख वाली रचनाओं को देखने से यह स्पष्ट है कि सं० १८७६ से १८७९ तक इनका निवास स्थान जयपुर ही रहा।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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