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१. नन्दीश्वर द्वीप पूजा-सं० १८७६ ज्ये० सुदि १, जयपुर। २. इक्कीस प्रकारी पूजा-सं० १८७८ माघ सुदि ५। ३. ऋषिमंडल-२४ जिनपूजा-१८७८ आश्विन सुदि ५ जयपुर। ४. प्रद्युम्नलीला प्रकाश१८७८ वैशाख सु० ११ । इसकी रचना इन्होंने संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् महाकवि बाणभट्ट की कादम्बरी के अनुसरण पर समासबहुल सालंकारिक गद्य में की है। इसकी एकमात्र अपूर्ण प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, चित्तौड़ शाखा के यति बालचन्द्रजी के संग्रह में सुरक्षित है। महोपाध्याय शिवचन्द्र गणि ने ही आमेर के चन्द्रप्रभ प्रासाद की प्रतिष्ठा करवाई है। अर्थात् जयपुर में रहते हुए इन्हीं के उपदेश से इस मन्दिर का निर्माण और इन्हीं के हाथों से सं० १८७७ में प्रतिष्ठा हुई है। ___इनके प्रमुख शिष्य थे रामचन्द्र, जिनकी दीक्षा सं० १८६७ में हुई थी। दीक्षा नाम था रत्नविलास. ये संस्कृत और राजस्थानी भाषा के अच्छे विद्वान् थे। इनके द्वारा रचित साहित्य है :१. कर्मबन्धविचार (पन्नवणासूत्रानुसार) सं० १९०७ का०सु० ५ ग्वालियर सिंधिया कटक। २. पंचचारित्र (पन्नवणासूत्रानुसार) सं० १९०७ का०सु० ५ (पत्र २८) आदि।
रामचन्द्र के शिष्य उम्मेदचन्द रचित प्रश्नोत्तरशतक (१८८४ जयपुर), दीपावलीव्याख्यान (१८९६) प्राप्त हैं और आनन्दवल्लभ रचित-१. दण्डकसंग्रहणीबालावबोध (१८८० अजीमगंज), २. विशेषशतकभाषा (१८८१ बालूचर), ३. श्राद्धदिनकृत्यभाषा (१८८२ अजीमगंज) और ४. होलिकाव्याख्यानभाषा (१८८३) उपलब्ध हैं।
उदयराज की दीक्षा १८८६ में हुई थी। इनकी कोई रचना प्राप्त नहीं है।
उदयराज के शिष्य तिलकधीर हुए। इनकी दीक्षा १८९४ में हुई थी। जन्म नाम तिलोक था। इनकी भी कोई कृति प्राप्त नहीं है। शिवचन्द्रोपाध्याय के एक पौत्र शिष्य नयसोम (नेमिचंद) भी थे। इनकी दीक्षा १८९८ में हुई थी। तिलोकचंद और नेमिचंद दोनों ही साथ रहते थे। जिनहर्षसूरि के पश्चात् शाखा भेद होने पर वे लोग बीकानेर गद्दी के ही समर्थक रहे। जयपुर में जिनमहेन्द्रसूरि शाखा का अधिक प्रभाव होने से उपाश्रय से इन्हें निष्कासित होना पड़ा। ऐसी स्थिति में उन्हें निकट में एक मकान खरीद कर उपाश्रय का रूप देना पड़ा, जो आज उन्हीं के शिष्य "यति श्यामलाल जी का उपाश्रय' नाम से मोतीसिंह भोमियों के रास्ते में दूसरा चौराहा, जौहरी बाजार, जयपुर में अवस्थित है। तिलकधीर और नयसोम की कोई रचना अभी तक देखने में नहीं आई है।
तिलकधीर के मुख्य शिष्य सुमतिपद्म हुए। इनकी दीक्षा सं० १९३५ में जिनहंससूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि के हाथों से हुई थी। इनका जन्म नाम श्यामलाल था और इनकी जीवन पर्यन्त इसी नाम से पहचान बनी रही।
सुमतिपद्म के शिष्य विजयचन्द्र थे। बीकानेर गद्दी के श्री पूज्य जिनचारित्रसूरि का स्वर्गवास होने पर विजयचन्द्र को गद्दी पर बिठाया गया, जो जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए इनका भी दो दशक पूर्व स्वर्गवास हो चुका है।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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