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भंग कर दिया । इसलिए महाराज ने श्री शम्यानयन, श्रीरूणापुर, श्रीबब्बेरक आदि नाना स्थानों में रहने वाले लोगों को सन्तोष देकर रूणा से विहार किया, सो श्रीमालवंश भूषण, जिनशासन प्रभावक सकल स्वधार्मिक वत्सल सेठ मानल के पुत्र सा० माल्हा सा० धांधू आदि भाइयों के साथ तथा मरुदेशीय समस्त सपादलक्ष परगने के नगर गाँवों में रहने वाले सकल श्रावकों के तीन सौ गाडों के झुण्ड के साथ फलवर्द्धिका (फलौदी) जाकर सम्पूर्ण अतिशयों के निधान, म्लेच्छों से व्याकुल सम्पूर्ण सपादलक्ष रूप खारे समुद्र में अमृत भरे कुण्ड के तुल्य श्री पार्श्वनाथ भगवान् का प्रथम यात्रा महोत्सव किया। इस यात्रा महोत्सव में विधि-संघ के श्रावकों ने श्री इन्द्र पद आदि अनेक पदों को ग्रहण करके, अनिवारित उत्तम भोजन दान, श्री स्वधार्मिक वात्सल्य, श्रीसंघ पूजा आदि अनेक प्रकार से जिनशासन की प्रभावना बढ़ाते हुए अपने अपरिमित धन को सफल किया। इसके बाद नागपुर के श्रावकों की प्रार्थना स्वीकार करके पूज्यश्री नागौर गए।
वहाँ से सेठ लोहदेव, सा० लखण, सा० हरिपाल आदि उच्चापुरीय विधि-संघ की अत्यन्त प्रबल प्रार्थना से, ज्ञान, ध्यान तथा बलशाली श्री मेघकुमार देव से मार्ग में सुरक्षित, अनेक साधुओं से परिवृत श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने गर्मी का मौसम होते हुए भी अनेक म्लेच्छों से संकुल महामिथ्यात्व से परिपूर्ण, सिन्ध प्रान्त की निर्जल - नीरस भूमि में धर्मकल्पद्रुमका पौधा लगाने के लिये विहार किया। उस देश के अलंकारभूत उच्चापुरी के समीपवर्ती देवराजपुर में उच्चापुरीय विधि - संघ के श्रावकों द्वारा प्रवेश महोत्सव कराये जाने पर पूज्य श्री महामिथ्यात्व के राज्य को उखाड़ने के लिए कुछ दिन वहीं ठहरे। वहाँ पर तमाम सिन्ध देश के श्रावकों की अत्यन्त गाढ़ प्रार्थना से सं० १३७३ में मार्गसिर वदि चतुर्थी के दिन पूज्यश्री ने समस्त अज्ञानी लोगों को सम्यक्त्व देने के हेतु आचार्य - पद-स्थापना, व्रत-ग्रहण तथा मालारोपणादि महामहोत्सव प्रारम्भ किए। पश्चात् महोत्सव के दिन आरम्भ-सिद्धि रात्रि में अपने ज्ञान-ध्यान के अतिशय से युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि की याद दिलाने वाले पूज्यश्री ने परस्पर में राजाओं के अत्यधिक युद्धों के कारण उजड़ते हुए देशों में, चोरडाकुओं के अनेक उपद्रवों से परिपूर्ण होते हुए मार्ग में भी अपने ज्ञान - बल से कुशलता का निश्चय करके चातुर्मास के बीच में ही अपने शिष्यरत्र राजचन्द्र मुनि जो कि पाटण में प्रसिद्ध विद्वान् महोपाध्याय विवेकसमुद्र जी के पास रहकर व्याकरण- तर्क साहित्य - अलंकार - ज्योतिष - स्वकीय- परकीय सिद्धान्तों को भली-भाँति जान चुके थे। ये आचार्य में होने वाले गुणों से विभूषित थे । उनको लिवाने के लिए सेठ वीसल और महणसिंह को देवराजपुर से गुजरात की भूमि के मुकुट समान मुख्य नगर पा भेजा । उपाध्याय जी ने आचार्यश्री की आज्ञा के अनुसार पुण्यकीर्ति गणि को साथ देकर पं० राजचन्द्र मुनि को भेज दिया। पूज्यश्री के ध्यान-बल से आकर्षित होकर शासनदेवता के प्रभाव से मार्ग में होने वाले चोर-डाकुओं के उपद्रवों की परवाह न करते हुए पं० राजचन्द्र मुनि जी कार्तिक चातुर्मास समाप्ति के दिन देवराजपुर पहुँचे और अपने दीक्षागुरु पूज्य श्री के चरणकमलरूपी महातीर्थ की वन्दना की। उनके आने के बाद उच्चापुर, मरुकोट, श्रीक्यासपुर आदि सिन्ध के अनेक नगरों और ग्रामों से आने वाले अगणित श्रावकों के विशाल मेले में आचार्य पद-स्थापना, व्रत- ग्रहण, मालारोपणादि
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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