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जयसागरोपाध्याय जैसे विद्वानों के आप शिक्षा-दीक्षा गुरु थे। गुणरत्नाचार्य को आपने ही दीक्षा प्रदान की थी। सं० १४७२ चैत्री पूनम को आपने जैसलमेर के पार्श्वनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई थी।
श्री जिनवर्द्धनसूरि जी प्रकाण्ड विद्वान् और प्रभावक आचार्य थे। इनकी चारप्रत्येकबुद्ध चरित्र, वाग्भटालंकार वृत्ति, तीर्थमाला, पूर्वदेशीयचैत्यपरिपाटी, सत्यपुरमंडन महावीरस्तवन, वीरस्तव, प्रतिलेखनाकुलक आदि रचनाएँ उपलब्ध हैं। इनके शिष्य-न्यायसुन्दर (? आज्ञासुन्दर) द्वारा वि०सं० १५१६ में रचित विद्यानरेन्द्रचउपई और विद्याविलासचौपई नामक कृति मिलती है।
सं० १४७४ चैत्र वदि ६ के दिन क्षेत्रपाल कृत उपद्रव के कारण श्री जिनभद्रसूरि की शाखा पृथक् हुई और आचार्य जिनवर्द्धनसूरि जी की शाखा "पिप्पलक" नाम से प्रसिद्ध हुई।
(२. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि)
ये माल्हू गोत्रीय थे। सं० १४८६ ज्येष्ठ सुदि ५ के दिन श्री देवकुलपाटक में साह सहणपाल कृत नंदी महोत्सवपूर्वक श्री जिनवर्द्धनसूरि जी महाराज ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती। विभिन्न प्रतिमालेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में जिनचन्द्रसूरि का नाम मिलता है।
(३. आचार्य श्री जिनसागरसरि)
ये नवलखा गोत्रीय थे। सं० १४९० वैशाख वदि १२ (सुदि ६) को देवकुलपाटक में साह पाल्हा, मं० डूंगर, भाखर, पर्वत कारित नन्दी महोत्सव में श्री मतिवर्द्धनसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। आपने विभिन्न स्थानों में ८४ प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। जिनमें से वि०सं० १४८९ से १५२० के मध्य प्रतिष्ठापित २१ प्रतिमायें आज भी मिलती हैं। अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ, वहाँ स्मारक स्तूप प्रसिद्ध है। सुप्रसिद्ध रचनाकार शुभशील गणि इन्हीं के शिष्य थे।
४. आचार्य श्री जिनसुन्दरसूरि)
आप कूकड़ चोपड़ा गोत्रीय थे। सं० १५११ फाल्गुन वदि ५ के दिन चित्रकूट में मंत्री पाल्हा, सं० डूंगर आदि कारित नंदीमहोत्सव द्वारा श्री विवेकरत्नसूरि जी ने आपका पट्टाभिषेक किया। वि०सं० १५१५ और १५२५ के मध्य अनेक प्रतिमा लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में जिनसुन्दरसूरि का नाम मिलता है।
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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