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आचार्य श्री जिनपद्मसूरि ११५. इसके बाद सं० १३९० ज्येष्ठ सुदि छठ सोमवार को मिथुन लग्न में देवराजपुर में युगादिदेव भगवान् के विधि-चैत्य में तरुणप्रभाचार्य ने श्री जयधर्म महोपाध्याय, श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय आदि तीस मुनि, अनेक साध्वियों, नाना देश, नगर-ग्राम-निवासी स्वपक्षी-परपक्षी अगणित श्रावक, ब्राह्मण, ब्रह्मक्षत्रिय, राजपूत, यवन, नवाब आदि हजारों मनुष्यों की अगणित उपस्थिति में श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की आज्ञा के अनुसार पद्ममूर्ति' नामक क्षुल्लक को उनके पाट-सिंहासन पर स्थापित किया गया और पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के आदेशानुसार उनका नाम परिवर्तन कर श्री जिनपद्मसूरि घोषित किया गया।
इस पाट महोत्सव के शुभ अवसर पर अमारि-घोषणा, नानाविध प्रभावना, अवारित सत्र, तालपूर्वक रासगान, सौभाग्यवती कुलीनललनाओं का मंगलमय गायन व प्रमोद नृत्य, पुष्कावर्तमेघ की भाँति अखण्ड रूप से धन-धान्य, वस्त्र, सुवर्ण, तुरंग आदि बहुमूल्य अनेक वस्तुओं का दान इत्यादि विविध धर्म कार्य किये गये। धनिकों ने चतुर्विध संघ-पूजा में धन-व्यय का सुयश संचित किया। यह महोत्सव रीहड़ कुल में दीपक के समान, सेठ धनदेव के पुत्ररत्न सेठ हेमल के पुत्र सेठ पूरणचन्द्र के सुपुत्र, जिन-शासन को प्रभावित करने में प्रवीण सेठ हरिपाल श्रावक ने सर्वदेशों-नगरों-ग्रामों में कुंकुम पत्रिकाएँ भेज कर चारों
ओर से, सर्व स्थानों से विधि-संघों को आमंत्रित कर, एक मास तक स्वागत कर, इस उत्सव को अपने विपुल धनव्यय से सफल बनाया। इसी हरिपाल श्रावक ने शत्रुजय, गिरनार आदि महातीर्थों की यात्रा की थी। इसी ने युगप्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि और श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज को सिन्ध देश में विहार करवाया था। अनेकों मुनियों को आचार्य पद, उपाध्याय पद दिलाने के साथ अपनी पुत्री को दीक्षा दिलायी थी। इसने हस्तिदंत के समान उज्ज्वल सुयश को पैदा करने वाले अनेकों पुण्य कार्यों से दिग्दिगन्तरों तक अपने कुटुम्बियों की ख्याति की थी। इन कार्यों में अपने चाचा सेठ कटुक एवं भतीजे कुलधर और अपने सुपुत्र सा० झांझण, सा० यशोधवल आदि सभी कुटुम्बियों को सदैव साथ रखकर अग्रसर होता था। इस महोत्सव में संघ-पूजा, साधर्मी-वात्सल्य आदि कार्यों में हजारों रुपये इसने अपने पास से लगाये थे। यह सदैव याचक वर्ग को मानसिक सन्तोष देने में तत्पर रहता था।
उस उत्सव में सेठ आंबा, सा० झांझा, सा० मंमी, सा० चाहड़, सा० धुस्सुक, सा० मोहण, सा० नागदेव, सा० गोसल, सा० कर्मसिंह, सा० खेतसिंह, सा० बोहित्थ आदि नाना स्थानों के निवासी धनी श्रावकों ने अपने-अपने धन का सदुपयोग किया था। उक्त अवसर पर श्री जिनपद्मसूरि जी महाराज ने जयचन्द्र, शुभचन्द्र, हर्षचन्द्र इन तीन मुनियों को तथा महाश्री, कनकश्री इन दो क्षुल्लिकाओं
१. श्री जिनपद्मसूरि जी की दीक्षा सं० १३८४ मा० सु० ५ को प्रतिष्ठा महोत्सवादि अनेक आयोजनों में ९ क्षुल्लक
और ३ क्षुल्लिकाओं के दीक्षोत्सव के साथ होने का उल्लेख आगे आ चुका है। इनके पिता का नाम अंबदेव (साधु श्री सहकारदेव सत्पुत्र मुनीश्वर) था।
खरतरगच्छ
प्रथम-खण्ड
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