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________________ ६. आद्य पक्षीय शाखा यह शाखा पिप्पलक शाखा के अन्तर्गत है। सं० १५६६ में श्री जिनदेवसूरि से निर्गत हुई थी। इनके आदि आचार्य श्री जिनदेवसूरि ही हैं जो कि पिप्पलक शाखा के आचार्य जिनवर्द्धनसूरि के चतुर्थ पट्टधर होते हैं। उपलब्ध पट्टावली के आधार पर इस शाखा की पट्ट-परम्परा इस प्रकार है१. जिनवर्द्धनसूरि १०. जिनचन्द्रसूरि २. जिनचन्द्रसूरि ११. जिनोदयसूरि ३. जिनसमुद्रसूरि १२. जिनसंभवसूरि ४. जिनदेवसूरि १३. जिनधर्मसूरि ५. जिनसिंहसूरि १४. जिनचन्द्रसूरि ६. जिनचन्द्रसूरि १५. जिनकीर्तिसूरि ७. जिनहर्षसूरि १६. जिनबुद्धिवल्लभसूरि ८. जिनलब्धसूरि (पंचायण भट्टारक) १७. जिनक्षमारत्नसूरि ९. जिनमाणिक्यसूरि १८. जिनचन्द्रसूरि आचार्य जिनवर्द्धनसूरि और आचार्य जिनचन्द्रसूरि का परिचय पिप्पलक शाखा के अनुसार ही है। (३. आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि सं० १५३३ माघ सुदि १३ को पुंजापुरी में आपका पदोत्सव हुआ। धर्म का प्रचार तथा प्रसार करते हुए सं० १५५६ में दीपाग्राम (चरिया) में आप स्वर्गवासी हुए। (४. आचार्य श्री जिनदेवसूरि आपका जन्म दोसी गोत्रीय सोम साह की धर्मपत्नी श्यामा देवी (सोमदेवी) की रत्नकुक्षि से सं० १५४२ में हुआ था। सं० १५५५ में आपने विजयपुर में दीक्षा ग्रहण की। १५५६ में राजपुर में धारीवाल कृत नन्दि महोत्सव में श्री शान्तिसागरसूरि ने आपको सूरिपद प्रदान किया। आपने रावल मालदेव जी को प्रतिबोध दिया था। अपनी धवल यशः कीर्ति से कलिकाल केवली विरुद प्राप्त किया था। संवत् १६३६ मार्गशीर्ष सुदि ३ को मेड़ता में आपका स्वर्गवास हुआ। आप ही के समय से यह शाखा आद्यपक्ष नाम से प्रसिद्ध हुई। १. उपाध्याय क्षमाकल्याणजी की पट्टावली के अनुसार संवत् १६५४ में शान्तिसागरसूरि जी से इस शाखा का आविर्भाव हुआ। २. श्लोकबद्ध पट्टावली में संवत् १६३५ लिखा है। (२८८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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