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यह वृत्तान्त ज्ञात कर प्रात:काल श्रावक गण सूरिजी के पास आये। यवन भी सूरिजी का धैर्य देखकर उन्हें अपने स्थान पर ले जाने को कहा। रूपा बोहरा उन्हें अपने घर लाया, नगर में सर्वत्र हाहाकार मच गया। नायसागर ने उत्तराध्ययन आदि सिद्धान्त सुनाये, अनशन आराधना करवाई। श्रावकों ने यथाशक्ति चतुर्थव्रत, हरित त्याग, द्वादश व्रतादि नियम लिए। आचार्यश्री गच्छ की शिक्षा अपने शिष्य हीरसागर को देकर सं० १७९४ वैशाख ६ रविवार, सिद्धि योग, प्रथम प्रहर में जिनेश्वर का ध्यान करते हुए नश्वर देह का त्याग कर दिवंगत हुए। श्रावकों ने उत्सवपूर्वक अन्त्येष्टि की। रूप बोहरा ने स्तूप कराया। इसी तरह राजनगर के बहिरामपुर में भी स्तूप बनवाया गया। वि०सं० १७९५ में रचित जिनशिवचन्द्रसूरिरास से इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
इन्होंने गच्छ व्यवस्था अपने शिष्य हीरसागर को सौंपी, उन्होंने इनके पाट पर किसे बैठाया? यह इतिहास अंधकार में है किन्तु सं० १८९३ में शत्रुजय पर मोतीशाह नाहटा की ढूंक की महान् प्रतिष्ठा यद्यपि उन्होंने श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी महाराज से कराई थी पर उनकी परम्परागत मान्यता खरतरगच्छ की पिप्पलिया शाखा की थी, क्योंकि कई शिलालेखों में "खरतर-पिप्पलिया गच्छे श्री जिनदेवसूरि पट्टे श्री जिनचन्द्रसूरि विद्यमाने" लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि परम्परा-क्रम प्रभावशाली हो गई थी। ___ श्री जिनवर्द्धनसूरि जी का मेवाड़ में बड़ा प्रभाव था। देवलवाड़ा का नवलखा गोत्रीय मंत्री रामदेव राणा खेता का मंत्री और सुश्रावक लद्ध का पुत्र था। सेठ रामदेव ने मेवाड़ में कई प्रतिष्ठाएँ करवाई थी, इनकी पत्नी ने कई ग्रंथ लिखवाये व अपने भ्राता मेरुनंदनोपाध्याय की मूर्ति सं० १४६२ में जिनवर्द्धनसूरि से प्रतिष्ठित करवाई थी। इनके पुत्र सहणपाल ने जिनवर्द्धनसूरि जी के उपदेश से वहाँ खरतरवसही का निर्माण कराया था। सं० १४९१ में श्री जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि के शिष्य श्री जिनसागरसूरि ने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी।
नागदा तीर्थ में रामदेव की द्वितीय भार्या मालणदे के पुत्र सेठ सारंग नवलखा ने ११ लाख के व्यय से जिनालय निर्माण कराके सं० १४९४ माघ सुदि ११ को जिनसागरसूरि जी से प्रतिष्ठा कराई थी।
सहणपाल राणा मोकल और उनके पुत्र राणा कुम्भकरण का मंत्री था। उसने सम्प्रति राजा के बनवाए हुए आहड़ के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।
इसी नवलखा वंश के नवलखा वर्द्धमान भार्या विमलादे के पुत्र कपूरचंद ने उदयपुर के पद्मनाभ तीर्थ के विशाल जिनालय का निर्माण कराया और सं० १८१९ माघ सुदि ५ को महोपाध्याय हीरसागर गणि से प्रतिष्ठित कराया था। इनकी रचनाओं में सं० १८१७ में रचित "चौबीसी" उपलब्ध है। इसके शिलालेख में श्री जिन (शिव) चन्द्रसूरि का पाट महोत्सव करने वाले दोसी कुशलसिंह की भार्या कस्तूरदे और पुत्री माणक बाई के सहाय करने का भी लेख के अन्त में उल्लेख है।
卐卐卐 १. देखिए कुशलनिर्देश, वर्ष ९, अंक ९ में 'उदयपुर का श्री पद्मनाभ तीर्थ' शीर्षक भंवरलाल नाहटा का लेख।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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