SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन्म हुआ। आपका जन्म नाम शिवचन्द्र रखा गया। सं० १७६३ में श्री जिनधर्मसूरि जी के पधारने पर वैराग्यवासित हो तेरह वर्ष की आयु में माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षित हुए। मासकल्प पूर्ण होने पर नव-दीक्षित शिवचन्द्र के साथ सूरि जी विहार कर गये। ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से व्याकरण, काव्य, न्याय, तर्क व सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन कर गीतार्थ हो गए। श्री जिनधर्मसूरि जी उदयपुर पधारे तब अपने शरीर में वेदना उत्पन्न होने से अंतिम समय ज्ञात कर सं० १७७६ मिती वैशाख शुक्ला ७ को शिवचन्द्र जी को आचार्य पद देकर वहीं स्वर्ग सिधारे। नियमानुसार शिवचन्द्र जी का नाम जिनचन्द्रसूरि रखा गया। उस समय राणा संग्राम के राज्य में दोसी भीखा के पुत्र कुशल जी ने पद महोत्सव किया। स्वधर्मी वात्सल्य, पहरामणी आदि बड़े समारोह से किये, याचकों को दान दिया। आचार्य-पदप्राप्ति के अनन्तर शिष्य हीरसागर को दीक्षित किया। संघ के आग्रह से वहीं चातुर्मास कर धर्म की बड़ी प्रभावना की। फिर गुजरात की ओर विहार कर दिया। सं० १७७८ में गच्छ-परिग्रह त्याग कर विशेष भाव से आपने क्रियोद्धार किया और आत्मगुणों की साधना करते हुए स्वपर-हितार्थ भव्यों को बोध देने लगे। गुजरात में विचरते हुए शत्रुजय तीर्थ पधारे और वहाँ चार महीने की स्थिति पर ९९ यात्राएँ की। जूनागढ़ पधार कर गिरनार जी में नेमिनाथ भगवान् की यात्रा की। स्तंभन पार्श्वनाथ की यात्रा कर खंभात में चातुर्मास किया। धर्मध्यान विशेष हुए। वहाँ से मारवाड़ की ओर विहार किया, आबू यात्रा कर तीर्थाधिराज सम्मेतशिखर पधारे। बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि स्पर्श कर वाराणसी में पार्श्वनाथ जी की यात्रा की। संघ के साथ पावापुरी, चम्पापुरी, राजगृही-वैभारगिरि यात्रा कर हस्तिनापुर में शान्ति-कुंथु-अरनाथ प्रभु की यात्रा कर दिल्ली पधारे। दिल्ली में चातुर्मास बिता कर गुजरात (राजनगर) पधारे, भणशाली कपूर ने चौमासा कराया। भगवतीसूत्र के व्याख्यान से सारे संघ को लाभान्वित किया। शत्रुजय-गिरनार की यात्रा कर दीवबंदर में चौमासा किया। फिर शत्रुजय, घोघा, भावनगर की यात्रा कर सं० १७९४ में खंभात पधारे। गुणानुरागी श्रावकों ने बहुमान किया आपने धर्मदेशना में तत्त्वामृत की झड़ी लगा दी। ___ एक दिन किसी दुष्ट व्यक्ति ने यवनाधीश के समक्ष मिथ्या चुगली खाई अतः उसने अपने सेवकों के साथ पूज्यश्री को बुलाकर कहा-"आपके पास जो धन है वह हमें दे दो!" सूरिजी तो सर्वथा परिग्रह त्यागी थे अतः उन्होंने कहा-"हमारे पास तो भगवंत के नाम के अतिरिक्त कोई धन नहीं है।" वह अर्थ-लोभी कब मानने वाला था, उसने सूरिजी को तंग करना प्रारम्भ किया। इतना ही नहीं, सत्ता के अन्धे यवनाधिप ने सूरिजी की खाल उतारने की आज्ञा दे दी। सूरिजी ने अपने पूर्व संचित अशुभकर्मों का उदय समझकर किंचित् भी क्रोध नहीं किया। रात्रि में मर्मस्थान पर दण्ड प्रहार किये गये। हाथों-पैरों के जीवित नख उतार कर असह्य वेदना उत्पन्न की गयी। वेदना बढ़कर मरणान्त अवस्था आ पहुँची, पर उन महापुरुष ने समता के निर्मल सरोवर में प्रविष्ट होकर भेद-विज्ञान द्वारा आत्मरमण में तल्लीनता कर दी। अपने पूर्व के खंदक, गजसुकुमाल आदि महापुरुषों के चरित्र का स्मरण कर आत्मस्थ हो गये। (२८६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy