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___ इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कोई जिनप्रतिमादि नहीं मिलती है और न ही किसी कृति के रचनाकार के रूप में इनका नाम मिलता है।
(५. आचार्य श्री जिनसिंहसूरि
जैसलमेर निवासी लोढ़ा (डोसी) गोत्रीय वीको साह की धर्मपत्नी महालदे (वाल्हादे) की रत्नकुक्षि से सं० १५८४ में आपका जन्म हुआ था। सं० १५९३ में राजसिंह अमीपाल कृत नन्दि महोत्सव द्वारा मेदिनीपुर में दीक्षा ली। सं० १६१५ (? १६१३) में जोधपुर में आचार्य पद प्राप्त किया। अनेक देशों में विहार करके भव्य जीवों का कल्याण कर सं० १६५४ कार्तिक सुदि ११ को मेड़ता में आप स्वर्गवासी हुए। वि०सं० १६१७ और १६२० के प्रतिमा लेखों में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में इनका उल्लेख मिलता है।
(६. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (पंचायण भट्टारक))
बेठवाल (लोढ़ा) गोत्रीय शाह तेजसी "जेतसी" की धर्मपत्नी तारादे की रत्नकुक्षि से सं० १६५४ पौष वदि ५ गुरुवार के दिन आपका जन्म हुआ। जन्म नाम पंचायण और दीक्षा नाम पद्मरंग गणि था। महाबुद्धिनिधान, चारित्रपात्र, युगप्रधान जिनसिंहसूरि जी ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। आपने कापरड़ा नगर में स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा प्रकट की। बादशाह जहांगीर ने आपके अद्भुत चमत्कार देखकर मुरतब लवाजमा आदि से आपका बड़ा सम्मान किया। भाद्रपद महीने में मेड़ता में आपने अमारि की उद्घोषणा करवाई। भण्डारी गोत्रीय भाना जी नारायणशाह को प्रतिबोध देकर महाराज श्री सूरसिंह से ६०,०००/- रुपये छुड़ाये और तत्कारित चैत्य में आपने स्वयंभृ पार्श्वनाथ की भी प्रतिमा स्थापित की। अर्थात् कापरड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ की संस्थापना आप ही ने की थी तथा रगतिया जी, कालाजी, गोराजी, खोडिया, हनुमान, चाचड़िया, पद्मावती, प्रत्यंगिरा, अच्छुप्ता इन नौ देवों को स्थापित किया। सं० १६९३ ज्येष्ठ वदि १४ को जैतारण में आपका स्वर्गवास हुआ।
आपके एक शिष्य गुणप्रभसूरि भी थे जिनसे सं० १६९४ में एक उपशाखा और निकली।
वि०सं० १६३४ से १६७८ तक के विभिन्न प्रतिमालेखों में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में उक्त आचार्य जिनचन्द्रसूरि का नाम मिलता है।
७. आचार्य श्री जिनहर्षसूरिपंचायण भट्टारक के अनन्तर आप पट्टधर हुये। सहस्रकरावतार, साक्षात् सरस्वती के अवतार, दोसी कुल शृंगार श्री जिनहर्षसूरि का जन्म भादो साह की धर्मपत्नी भगता देवी की रत्नकुक्षि से हुआ। सं० १६९३ में भंडारी गोत्रीय नारायण साह कृत नन्दि महोत्सव में आपको सूरिपद दिया गया। १. पट्टावली में परपक्षीय द्वारा उल्लेख है। अतः संभव है कि आचार्य जिनराजसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान
किया है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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