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कर पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए, चतुर्विध संघ को मिथ्यादुष्कृत दान देकर चौथे देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए।
विशेष
जिनवल्लभसूरि की एक अपूर्व रचना है वीरचैत्यप्रशस्ति । विविध छन्दों में रचित ७८ श्लोकों की रचना होने के कारण यह अष्टसप्तति के नाम से भी प्रसिद्ध है। चित्तौड़ स्थित महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा के समय यह प्रशस्ति वि०सं० ११६३ में रची गयी थी और शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कर महावीर चैत्य में लगायी गयी थी । वस्तुतः यह प्रशस्ति जिनवल्लभ की आत्मकथा है । इसमें जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से लेकर ११६३ तक की जीवन में घटित घटनाओं का संक्षिप्त किन्तु सरस आलेखन हुआ है। दुर्भाग्य से वह जिनालय मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर दिया गया किन्तु किसी सुविज्ञ विद्वान ने इस शिलापट्ट प्रशस्ति की प्रतिलिपि कर ली थी उसकी एकमात्र प्रति L.D. Institute Ahmedabad में सुरक्षित है । इस प्रशस्ति अर्थात् अष्टसप्ततिका का उल्लेख और उद्धरण जिनपतिसूरि, जिनपालोध्याय आदि ने अपने ग्रन्थों में किया है। प्रशस्ति का सार निम्न है :
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परमारवंशीय राजा भोज, उदयादित्य और चित्रकूटाधिपति नरवर्म का उल्लेख ऐतिहासिक महत्त्व का है।
स्वयं को कूर्चपुरगच्छीय आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य बतलाते हुए चैत्यवास उन्मूलक जिनेश्वरसूरि का गुणगान करते हुए सुविहित पक्षीय आचार्य अभयदेव का शिष्य बनने का उल्लेख किया है ।
चित्रकूट के प्रमुख श्रेष्ठियों - अम्बक, केहिल, वर्धमान इत्यादि के इसमें नाम प्राप्त होते हैं। स्वकीय उपासकों में धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्धमान पुत्र वीरदेव, माणिक्य, पल्लिका निवासी प्रद्युम्रवंशीय सुमति, वैद्य क्षेमसरीय, सर्वदेव के पुत्र रासल्ल, धनदेव, वीरक, खंडेलवंशीय मानदेव, पद्मप्रभ, पल्लक, शालिभद्र पुत्र साधारण, सढक इत्यादि के नाम भी इसमें प्राप्त होते हैं।
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चित्तौड़ में विधि चैत्य निर्माण की आवश्यकता क्यों हुई? इसका कारण बताते हुए उपासकों द्वारा महावीर और पार्श्वनाथ के एक-एक चैत्यों का निर्माण हुआ ।
विधि चैत्यों में किस प्रकार उपासना की जाये, इसका शास्त्रीय मार्ग भी दिखाया गया है ।
इन चैत्यों के व्यय के लिये चित्रकूटाधिपति नरवर्मा ने जो दान दिया था, उसका भी इस प्रशस्ति में उल्लेख है ।
यह प्रशस्ति सूत्रधार जसदेवपुत्र रामदेव ने शिलापट्ट पर उत्कीर्ण की थी ।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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