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से भी सुन लेंगे।" उनकी इच्छानुसार महाराज ने शुभ दिन देख कर व्याख्यान प्रारम्भ किया। "संवच्छरमुसभजिणो" इस एक गाथा की व्याख्या में छः मास का समय व्यतीत हो गया। इस प्रकार के दृष्टान्त उदाहरण और सिद्धान्तों के उपदेशामृत से श्रावकों को अभूतपूर्वक लाभ मिला और वे तृप्त नहीं हुए। श्रावक बोले-"भगवन् ! व्याख्यान में ऐसी अपूर्व वर्षा या तो तीर्थंकर भगवान् ही कर सकते हैं या आपने ही की है।" इस प्रकार श्रावक लोग महाराज की देशना की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
२५. एक दिन व्याख्यान देकर महाराज श्रावकों के साथ देव मन्दिर से आ रहे थे। अपने निवास स्थान पर जाते समय मार्ग में महाराज ने एक अश्वारुढ़ दूल्हे को देखा, जिसके साथ में कई कुटुम्बी, बन्धुवर्ग तथा जनेतियों का समूह था और पीछे-पीछे मनोहर मांगलिक गायन करती हुई महिलाओं का झुण्ड चल रहा था। वह सजधज कर विवाह करने जा रहा था। उसे देखकर महाराज बोले-"देखो संसार की परिस्थिति कैसी विचित्र है? ये स्त्रियाँ जो इस समय उत्साह से मंगल गान कर रही हैं, रोती हुई लौटेंगी।" वह वर राजा वधू के घर पहुँच कर घोड़े से नीचे उतरा और मकान पर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा कि दैवयोग से उसका पाँव फिसल गया और वह गिर कर घरट के कीले पर आ पड़ा। फिर क्या था, वह कीला उसके पेट में घुस गया। पेट के दो विभाग हो गये, चमड़ा फट गया और वह मर गया। उन स्त्रियों को रोती हुई वापस आती देख कर सब श्रावक लोग महाराज के इस भविष्यविषयक ज्ञान से चकित हो गए और महाराज की खूब स्तुति करने लगे कि महाराज तो त्रिकालज्ञ हैं। इस प्रकार श्रावकों में धर्म-भावना बढ़ाकर तथा अपने अद्भुत चमत्कारों से सब को चकित करके महाराज श्री वहाँ से नागपुर (नागौर) पधारे।
२६. उन्हीं दिनों में देवभद्राचार्य जी विचरते हुए गुजरात प्रान्त के मुख्य नगर पाटण में आये। वहाँ आने पर उन्होंने सोचा प्रसन्नचंद्राचार्य ने पूर्व में मुझ से कहा था कि-"जिनवल्लभ गणि को अभयदेवसूरि जी महाराज के पाट पर स्थापित कर देना। इस कार्य के सम्पादन करने का इस समय उचित अवसर है।" ऐसा निश्चय करके उन्होंने जिनवल्लभ गणि जी के पास नागौर पत्र भेजा। उसमें लिखा था, "समुदाय के साथ आप शीघ्र ही चित्तौड़ आवें। वहाँ हम सब मिल कर पूर्व विचारित कार्य को सफल करेंगे।'' पत्र को पढ़कर गणि जी परिवार सहित चित्तौड़ आ गए। उधर देवभद्राचाय भी आ पहुँचे। पण्डित सोमचंद्र को भी आह्वान पत्र भेजा था किन्तु वे समय पर न आ सके। शुभ मुहूर्त देखकर श्री देवभद्रसूरि ने श्री जिनवल्लभ गणि को सूरि पद प्रदान कर श्री अभयदेवसूरि जी महाराज के पट्ट पर स्थापित कर दिया। पदारूढ़ होने का समय आषाढ़ शुक्ला ६ सं० ११६७ वि० और स्थान चित्तौड़ शहर में वीर प्रभु का विधि चैत्यालय था। उपदेश सुनने के लिए आने वाले अनेक भव्यजन युगप्रधान श्री अभयदेवसूरि जी के चरण सेवक युगप्रधान श्री जिनवल्लभसूरि को तथा उनके उपदेशामृत को सुनकर मोक्ष मार्ग के पथिक हो गये। तदनन्तर श्री देवभद्राचार्य जी पाट महोत्सव सम्बन्धी सब कार्य सम्पन्न करके विहार करते हुए अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच गये। वि०सं० ११६७ मिती कार्तिक कृष्णा १२ रात्रि को चतुर्थ प्रहर में श्री जिनवल्लभसूरि जी तीन दिन का अनशन
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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