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आकृष्ट हो रहा था अतः अपने अनुचर से कहा-"स्वामी महाराज को शीघ्र यहाँ सम्मान के साथ लाओ। उनका उपदेश सुनेंगे।" राजा के आदेश से महाराज बुलाये गये। आपके उपदेशामृत से राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और प्रार्थना करने लगा-"महाराज ! मैं आपको तीन लाख रुपये या तीन गाँव देना चाहता हूँ।" महाराज ने कहा-"राजन् ! हम लोग व्रती साधु हैं। हमने धनादि परिग्रह का त्याग कर दिया है अतः धनादि संग्रह हम नहीं करते, फिर भी यदि आपका यही आग्रह है तो चित्तौड़ में श्रावकों ने दो मन्दिर बनवाये हैं, उनकी पूजा निमित्त आप अपने महसूल-दान में से प्रतिदिन दो रुपये दिलाते रहिये।" यह सुन कर महाराज के इतने भारी त्याग को देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ और महाराज की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा और यह दान मेरा सदा शाश्वत हो जाएगा ऐसा समझ कर गणि जी के कथनानुसार दोनों मन्दिरों में राजा ने वृत्ति नियत कर दी।
२४. उसी समय नागपुर (नागौर) के श्रावकों ने नेमिनाथ भगवान् का नवीन मन्दिर और मूर्ति बनवाई थी। वहाँ के श्रावकों का यह विचार हुआ कि-"उस मन्दिर और मूर्ति की प्रतिष्ठा श्री जिनवल्लभ गणि को गुरु बना कर उनके हाथ से करावें।" ऐसा एक मत से विचार करके उन्होंने बड़े आदर सम्मानपूर्वक महाराज श्री को अपने यहाँ बुलाया। पूज्य श्री ने शुभ दिन और शुभ लग्न में नेमिनाथ स्वामी का मन्दिर व मूर्ति की यथा विधि प्रतिष्ठा की। इस पुण्य कार्य के प्रभाव से वहाँ के प्रायः सभी श्रावक लक्षाधीश हो गये। उन्होंने श्री नेमिनाथ भगवान् की प्रतिमा के रत्न जटित आभूषण बनवाये, यही धनवृद्धि का सदुपयोग है। नरवरपुर के श्रावकों के मन में भी यह भाव उत्पन्न हुआ"गणि जी को गुरु स्वीकार करके उनके द्वारा देव मन्दिर की प्रतिष्ठा करावें।" ऐसा सोच कर महाराज श्री को आदर से बुलाया। उन्होंने आकर श्रावकों की इच्छानुसार प्रतिष्ठा सम्बन्धी सब कार्य विधिपूर्वक करवा दिया। गणिवर्य महाराज ने नागपुर और नरवर दोनों ही स्थानों के मन्दिरों पर रात्रि में भगवान् के नैवेद्यादि भेंट चढ़ाना, रात्रि में स्त्रियों के आगमन व डांडिये रमण आदि के निषेध के लिए शिलालेख के रूप में विधि लिखवा दी, जिसको "मुक्ति साधक विधि' नाम से कहा है। तदनन्तर मरुकोट्ट नगरस्थ श्रावकों ने गणि जी महाराज से अपने यहाँ पधारने की प्रार्थना की। उनकी इस विनती को स्वीकार करके महाराजश्री विक्रमपुर होते हुए मरुकोट्ट पधारे। वहाँ के श्रद्धालु श्रावकों ने महाराज को एक अति सुन्दर स्थान पर ठहराया, जिसमें भोजन-भजन आदि के लिए अलगअलग स्थान बने हुए थे। महाराज वहाँ पर सुखपूर्वक विराजे। श्रावकों ने प्रार्थना की-"महाराज ! आपके मुखारविन्द से जिन वाणी के रसामृत का आस्वादन करना चाहते हैं।" महाराज ने कहा"श्रावक लोगों का उपदेश सुनना ही धर्म है। आप लोगों की इच्छा हो तो "उपदेशमाला" का प्रारम्भ किया जाए?'' श्रावकों ने कहा-"यह तो हमने पहले भी सुनी है। फिर महाराज के मुखारविंद १. यह मन्दिर धनदेव सेठ ने बनवाया था, जिसका उल्लेख तत्कालीन देवालय के निर्मापक सेठ धनदेव के ही पुत्र कवि पद्मानंद अपने वैराग्यशतक में इस प्रकार करते हैं :"सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्यागंजः, पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियांमानन्द सम्पत्तये॥"
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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