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मांगी। माता ने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये - मिन्नत की, पर वह व्यर्थ हुई । अन्त में स्वेच्छानुसार आज्ञा प्राप्त की और समारोहपूर्वक दीक्षा की तैयारियाँ हुईं। शुभमुहूर्त में जिनराजसूरि जी ने रामणकुमार को दीक्षा देकर कीर्तिसागर नाम रखा । सूरि जी ने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए उन्हें वा० शीलचन्द्र गुरु को सौंपा। उनके पास इन्होंने विद्याध्ययन किया ।
चन्द्रगच्छ-श्रृंगार आचार्य सागरचन्द्रसूरि ने गच्छाधिपति श्री जिनराजसूरि जी के पट्ट पर कीर्तिसागर जी को बैठाना तय किया । भाणसउलीपुर में साहुकार नाल्हिग रहते थे जिनके पिता का नाम महुड़ और माता का नाम आंबणि था । लीला देवी के पति नाल्हिगसाह ने सर्वत्र कुंकुमपत्रिका भेजी। बाहर से संघ विशाल रूप में आने लगा । सं० १४७५ में शुभमुहूर्त के समय सागरचन्द्रसूरि ने कीर्तिसागर मुनि को सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया । नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से पट्टाभिषेक उत्सव मनाया। नाना प्रकार के वाजित्र बजाये गए और याचकों को मनोवांछित दान देकर सन्तुष्ट किया गया ।
उपा० क्षमाकल्याण जी की पट्टावली में आपका जन्म सं० १४४९ चैत्र शुक्ला ' षष्ठी को आर्द्रानक्षत्र में लिखते हुए भणशाली गोत्र आदि सात भकार अक्षरों को मिलाकर सं० १४७५ माघ सुदि पूर्णिमा बुधवार को भणशाली नाल्हाशाह कारित नंदि महोत्सवपूर्वक स्थापित किया। इसमें सवा - लाख रुपये व्यय हुए थे । वे सात भकार ये हैं - १. भाणसोल नगर, २. भाणसालिक गोत्र, ३. भादो नाम, ४. भरणी नक्षत्र, ५. भद्राकरण, ६. भट्टारक पद और जिनभद्रसूरि नाम ।
आपने जैसलमेर, देवगिरि, नागोर, पाटण, माण्डवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानों पर हजारों प्राचीन और नवीन ग्रंथ लिखवा कर भंडारों में सुरक्षित किये, जिनके लिए केवल जैन समाज ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण साहित्य संसार आपका चिर कृतज्ञ है। आपने आबू, गिरनार और जैसलमेर के मन्दिरों में विशाल संख्या में जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी, उनमें से सैकड़ों अब भी विद्यमान हैं।
श्री भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नाचार्य को आपने ही आचार्य पद से अलंकृत किया था । सं० १५१४ मार्गशीर्ष वदि ९ के दिन कुंभलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ।
आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जी उच्चकोटि के विद्वान् और प्रतिष्ठित हो गए हैं। उन्होंने अपने ४० वर्ष के आचार्यत्व, युगप्रधानत्व काल में अनेक धर्मकार्य करवाये । विविध देशों में विचरण कर धर्मोन्नति का विशेष प्रयत्न किया। जैसलमेर के संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति में आपके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गई है। आपके द्वारा अनेक स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित करने का विवरण ऊपर लिखा जा चुका है। राउल श्री वैरिसिंह और त्र्यंबकदास जैसे नृपति आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे। सं० १४९४
१. उपा० जयसोमीय गुरुपर्व क्रम में छाजहड़ गोत्रीय सा० धाणिक भार्या खेतलदे का पुत्र लिखा । माता-पिता के नामों में तो उच्चारण भेद है । भणशाली गोत्र के पदोत्सवकारक नाल्हिगशाह थे जिससे सात भकार
समर्थित हो जाते हैं। श्री जिनभद्रसूरि जी का छाजहड़ गोत्र ही ठीक है ।
गुरुपर्व क्रम में कृष्णपक्ष लिखा है। दीक्षा १२ वर्ष की आयु में ली और आचार्य पद की प्राप्ति के समय २५ वर्ष के थे |
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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