SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में इस मन्दिर का निर्माण चौपड़ा गोत्रीय सा० हेमराज-पूना-दीहा-पाँचा के पुत्र शिवराज, महीराज लोला और लाखण ने करवाया था। राउल वैरिसिंह ने इन चारों भ्राताओं को अपने भाई की तरह मानकर वस्त्रालंकार से सम्मानित किया था। सं० १४९७ में सूरि जी के कर-कमलों से प्रतिष्ठा अंजनशलाका कराई। इस अवसर पर ३०० जिन बिम्ब, ध्वज-दण्ड शिखरादि की प्रतिष्ठा हुई। इस ३५ पंक्तियों वाली प्रशस्ति का निर्माण जयसागरोपाध्याय के शिष्य सोमकुंजर ने किया और पं० भानुप्रभ ने आलेखित किया था। इस प्रशस्ति की १०वीं पंक्ति में लिखा है कि आबू पर्वत पर श्री वर्द्धमानसूरि जी के वचनों से विमल मंत्री ने जिनालय का निर्माण करवाया था। श्री जिनभद्रसूरि जी ने उज्जयन्त, चित्तौड़, मांडवगढ़, जाउर में उपदेश देकर जिनालय निर्माण कराये व उपर्युक्त नाना स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित कराये, यह कार्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। इस मन्दिर के तलघर में ही विश्व विश्रुत श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान-भण्डार है, जिसमें प्राचीनतम ताड़पत्रीय ४०० प्रतियाँ हैं। खंभात का भंडार धरणाक ने तैयार कराया था। ___ मांडवगढ़ के सोनिगिरा श्रीमाल मंत्री मंडन और धनदराज आपके परमभक्त विद्वान् श्रावक थे। इन्होंने भी एक विशाल सिद्धान्त कोश लिखवाया था जो आज विद्यमान नहीं है, पर पाटण भंडार की भगवतीसूत्र की प्रशस्ति युक्त प्रति मांडवगढ़ के भंडार की है। आपकी "जिनसत्तरी प्रकरण' नामक २१० गाथाओं की प्राकृत रचना प्राप्त है। सं० १४८४ में जयसागरोपाध्याय ने नगर कोट (कांगडा) की यात्रा के विवरण स्वरूप "विज्ञप्ति त्रिवेणी" संज्ञक महत्त्वपूर्ण विज्ञप्ति पत्र आपको भेजा था। इन्होंने सं० १५०९ कार्तिक सुदि १३ को जैसलमेर के चन्द्रप्रभ जिनालय में प्रतिष्ठा की। श्रुतरक्षक आचार्यों में श्री जिनभद्रसूरि जी का नाम मूर्धन्य स्थान में है। खरतरगच्छ के दादा संज्ञक चारों गुरुदेवों की भाँति आपके चरण व मूर्तियाँ अनेक स्थानों में पूज्यमान हैं। श्री जिनभद्रसूरि शाखा में अनेक विद्वान् हुए हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्गीय, भावहर्षीय व जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के आप ही पूर्व पुरुष हैं। आपने कीर्तिराज उपाध्याय को आचार्य पद देकर श्री कीर्तिरत्नसूरि नाम से प्रसिद्ध किया था। ये नेमिनाथ महाकाव्यादि के रचयिता और बड़े प्रभावक आचार्य हुए हैं। इनके गुणरत्नसूरि, कल्याणचन्द्रादि ५१ शिष्य थे। इनके भ्राताओं व उनके वंशजों ने जैसलमेर, जोधपुर, नाकोड़ा, बीकानेर आदि अनेक स्थानों में जिनालय निर्माण कराये व अनेक संघ-यात्रादि शासन प्रभावना के कार्य किये थे। श्री कीर्तिरत्नसूरि शाखा में पचासों विद्वान् कवि आदि हुए हैं। गीतार्थ शिरोमणि श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि भी श्री कीर्तिरत्नसूरि जी की परम्परा में ही हुए हैं। श्री जयसागर जी को जो श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के शिष्य थे, आपने ही सं० १४७५ में उपाध्याय पद से अलंकृत किया। ये बड़े विद्वान् और प्रभावक हुए हैं। आबू की "खरतर वसही" दरड़ा गोत्रीय सं० मंडलिक जो उपाध्यायजी के भ्राता थे, ने ही निर्माण करवाई थी। उपाध्याय जी की परम्परा में भी अनेकों विद्वान् हुए। उपाध्याय जी के निर्माण किए अनेक ग्रंथ व स्तोत्रादि उपलब्ध हैं। ज卐 (२१८) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy