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से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने सं० १४४४ में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। श्री सागरचन्द्राचार्य ने सं० १४५९ में आपके आदेश से जैसलमेर के श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय में जिन बिम्ब-स्थापना की थी
नवेषुवान्दुमितेथ वत्सरे निदेशतः श्रीजिनराजसूरेः।
अस्थापयन् गर्भगृहेत्र बिम्बं, मुनीश्वराः सागरचन्द्रसाराः॥ सं० १४४४ में कैलवाड़ा मेवाड़ के मंत्री शाखा के अरजन श्रेष्ठी की पत्नी लखमिणि देवी के अंगज रावण कुमार को मिती कार्तिक कृष्णा १२ को दीक्षित कर राज्यवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १४६१ में अनशन आराधनापूर्वक देवकुल पाटक (देलवाड़ा) में स्वर्गवासी हुए। देलवाड़ा के सा० नान्हक श्रावक ने आपकी भक्तिवश मूर्ति बनवा कर श्री जिनवर्द्धनसूरि जी से प्रतिष्ठित करवाई जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है। इस मूर्ति पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्णित है
"सं० १४६९ वर्षे माघ सुदि ६ दिने ऊकेशवंशे सा० सोषासन्ताने सा० सुहड़ा पुत्रेण सा० नान्हकेन पुत्र वीरमादि परिवारयुतेन श्री जिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्री खरतरगच्छे श्री जिनवर्द्धनसूरिभिः"
आचार्य श्री जिनभद्रसूरि -
आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि जी के पद पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० १४७५ में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया। श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के सम्बन्ध में पिप्पलक शाखा के इतिहास में लिखा जायेगा।
जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है
मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है। जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था। उनकी शीलादि विभूषिता सती स्त्री का नाम खेतलदेवी था। इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया, वे असाधारण रूपगुण सम्पन्न थे। ___ एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे। रामणकुमार के हृदय में आचार्यजी के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपनी मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा
१. जैसलमेर के तत्कालीन राजा लक्ष्मणदेव राउल इनके बड़े प्रशंसक और भक्त थे। इनके पट्ट पर भावप्रभसूरि
बैठे जो माल्हू शाखा के लूणिचा कुल के सव्वड़ साह की भार्या राजलदे के पुत्र और जिनराजसूरि जी के शिष्य थे। (देखें ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ४१)
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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