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इधर पूरब देश (उ०प्र०) के जवणापुर (जौनपुर) में महत्तियाण शाखा के शृंगार ठाकुर रामसिंह और उनकी शीलवती स्त्री खीमिणी निवास करते थे, जिनके पुत्ररत्न ठाकुर जिनदास-जो राज्य धुरा धारण में समर्थ व्यक्ति थे-ने गुरु महाराज को पूरब देश में बुलाने का चिरमनोरथ साकार करने के लिए अपने मामा संघपति भीषन को बुलाकर उन्हें गुजरात जाकर गुरु महाराज को बुला लाने के लिए आग्रह किया। भीषन भी श्रावक संघ के साथ प्रयाण कर विषम भूमि उल्लंघन कर पाटणगुजरात आ पहुँचे।
भीषन ने संघ की उपस्थिति में गुरु महाराज को तीन प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन कर, भट्ट आदि याचकजनों को अश्व, कंकण, वस्त्रादि दान किये। उसने कहा-"प्रभो! कुगुरु, कुदेव और कुधर्म वासित पूरब देश में सद्गुरु की अनिवार्य आवश्यकता समझ कर जिनदास ठाकुर ने मुझे आपको बुला लाने के लिए भेजा है, आप जिनभाषित धर्म का प्रकाश फैला कर भव्यों के प्रतिबोधार्थ अवश्य पधारिए।" सूरिजी ने पन्द्रह मुनिवरों को लेकर भीषन के साथ विहार कर दिया। वे गुजरात से सांचौर, जीरावला, आबू तीर्थादि की यात्रा करते हुए देवलवाड़ा (मेवाड़) पधारे। आडू नाल्हा साह ने बड़े समारोह के साथ सूरिजी का प्रवेशोत्सव कराया। मालारोपण, व्रतग्रहण और संघ पूजादि के द्वारा धर्म प्रभावना कर सूरि महाराज गोपाचल-ग्वालियर पधारे। श्रीमान् रघुपति शाह ने वहाँ के राजा को आमंत्रित कर गुरु महाराज का प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ से विहार कर " हथकंति" पधारे। नाना प्रकार के उत्सव चलने लगे। राजा उदयराज ने सूरि जी को वन्दन कर निवेदन किया-"प्रभो! मेरे धन-धान्य और राज्य विस्तार में कोई कमी नहीं है, पर पुत्र के बिना मेरा राज्यादि सब कुछ शून्य है।"
सूरिजी ने ध्यान बल से कहा-"यदि तुम मांस-मदिरा का त्याग करो तो छः महीने में तुम्हारी आशा पूर्ण हो सकती है।" राजा ने गुरु महाराज का वचन मान्य किया, जिससे उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई और नित नये उत्सव होने लगे। सूरि जी वहाँ से सिंहड़ईपुर पधारे। राजा पृथ्वीचन्द्र ने बड़े भारी समारोह से प्रवेशोत्सव किया। ब्राह्मण लोग ईर्ष्या से जल-भुन गए और कहने लगे-"यह श्वेताम्बर कहाँ से आ गया? जिसकी ओर राजा भी आकृष्ट हो गया है।" पण्डित लोग मिल कर शास्त्रार्थ के लिए आये। सात दिन तक शास्त्रार्थ हुआ, सूरि जी ने उन्हें जीत कर यश प्राप्त किया।
सूरि महाराज विहार करके जवणपुर पहुँचे। ठाकुर जिनदास ने हर्षोल्लासपूर्वक अभूतपूर्व प्रवेशोत्सव किया। तत्रस्थ लोगों ने नाना प्रकार के व्रतादि ग्रहण किये। उपधान व मालारोपण उत्सव हुए। एक दिन जिनदास ने राजगृह यात्रार्थ संघ निकालने की भावना व्यक्त की। मुहूर्त निकालकर आमंत्रण पत्र भेजे गए। जवणपुर में संघ एकत्र हुआ। पहला तिलक संघपति जिनदास के हुआ। फिर मोल्हण, भीषन, धर्मदास, घाटम, कर्मसिंह, देपाल, हालू, सेऊ, वील्ह, देवचंद, श्रीमालों में नरपाल, ओढर, डालू, पेढउ, सहजपाल, समुदा, सारंग आदि ५२ संघपति श्री जिनवर्द्धनसूरि ने स्थापित किए। संघ के साथ देवालय था, चार हजार पालकियाँ थी, घोड़े, बैलों का पार नहीं था। तंगोटी, साइवान, सिराइचा आदि सारी सामग्री भरपूर थीं।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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