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५. पिप्पलक शाखा गुर्वावली में जिनराजसूरि (प्रथम) तक तो क्रम एक सा ही है। उनके पट्टधर जिनवर्द्धनसूरि जी से यह शाखा भिन्न हुई थी। उनके पट्टधर आचार्यों की परम्परा इस प्रकार है१. जिनवर्द्धनसूरि
८. जिनकीर्तिसूरि २. जिनचन्द्रसूरि
९. जिनसिंहसूरि ३. जिनसागरसूरि
१०. जिनचन्द्रसूरि ४. जिनसुन्दरसूरि
११. जिनरत्नसूरि ५. जिनहर्षसूरि
१२. जिनवर्द्धमानसूरि ६. जिनचन्द्रसूरि
१३. जिनधर्मसूरि ७. जिनशीलसूरि
१४. जिनशिवचन्द्रसूरि (जिनचन्द्रसूरि)
(१. आचार्य श्री जिनवर्द्धनसूरि)
मेवाड़ देश में कइलवाड़पुर नामक एक समृद्ध नगर है, जहाँ मंत्री शाखा के अरजन श्रेष्ठी और उनकी शीलवती पत्नी लखमिणी देवी निवास करते थे। उनके रावण नामक पुत्र था, उसने सद्गुरु श्री जिनराजसूरि जी की वैराग्यपूर्ण देशना सुनकर उनसे दीक्षित करने की प्रार्थना की। सूरिजी ने मातापितामह से पूछने को कहा। माता के सांसारिक प्रलोभनों में न आकर जब रावण कुमार अपने वैराग्य परिणामों में दृढ़ रहा तो उसे विवश हो आज्ञा देनी पड़ी। मंत्री शाखा के श्रृंगार अर्जुन ने दीक्षा की कुंकुम पत्रिकाएँ सर्वत्र भेजी और महोत्सवपूर्वक सं० १४४४ कार्तिक कृष्णा १२ के दिन सूरिजी ने रावण कुमार को दीक्षित कर राज्यवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया। राजवर्द्धन मुनि शास्त्र-पठन, ग्रहणा और आसेवना में दत्तचित्त हो गए।
कितने ही वर्षों बाद श्री जिनराजसूरि जी ने अपना आयु शेष ज्ञात कर अपने हाथ से चिट्ठी लिखकर महीपत शाह को सौंपी और अनशन आराधना पूर्वक स्वर्गवासी हो गए। देवलवाड़ा-मेवाड़ में महीपति शाह ने आचार्य श्री सागरचन्द्रसूरि जी महाराज को पूछ कर सारे संघ को एकत्र किया
और आचार्य पदोत्सव प्रारम्भ किया। सं० १४६१ मिती आषाढ़ कृष्णा १० शनिवार के दिन बड़े भारी समारोह से श्री सागरचन्द्रसूरि जी ने राजवर्द्धनमुनि को आचार्य पद देकर श्री जिनराजसूरि के पट्टधर श्री जिनवर्द्धनसूरि नाम से प्रसिद्ध किया। तदनन्तर सूरि महाराज ग्रामानुग्राम विचरते हुये गुजरात के अणहिलपुर पाटण पधारे। पाटण के खरतरगच्छ समुदाय ने बड़े समारोह से सूरि महाराज का स्वागत समारोह किया। यहाँ उपाध्याय पद प्रदान, दीक्षा और माला परिधान आदि अनेक उत्सव हुए। सूरिजी गुजरात में नाना धर्मोद्योत करते हुए विचरने लगे।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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