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उपधान तप के मालारोपण महोत्सव के प्रसंग पर आचार्य श्री जिनऋद्धिसूरि जी महाराज ने संवत् २००० पौष वदि १ को इन्हें आचार्य पद से अलंकृत किया था।
सं० २००० में नागौर संघ में जो आपस में विरोध और वैमनस्य चरम सीमा पर चल रहा था, उसे सुलझा कर संघ में ऐक्य स्थापित किया। संवत् २००३ में आचार्य श्री जिनरत्नसूरि जी और उपाध्याय लब्धिमुनि जी आदि के साथ कोटा में चातुर्मास किया था। कोटा में ही गुणचन्द्र, भक्तिचन्द्र और गौतमचन्द्र को दीक्षित किया था। भविष्य में गौतमचन्द्र (गौतमसागर) के शिष्य त्यागी स्थिरमुनि हुए। ।
संवत् २००६ का चातुर्मास अपनी जन्मभूमि वांकड़िया बड़गांम में किया जो संवत् १९६० में दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् यहाँ उनका प्रथम चातुर्मास था। वहाँ भी उपधान तप करवाया। आपका अन्तिम चातुर्मास मालवाड़ा में हुआ। यहाँ पर उपधान तप के मालारोपण महोत्सव पर अपने प्रिय शिष्य विनयसागर को अपने हाथों से उपाध्याय पद दिया था।
संवत् २००७ माघ वदि अमावस्या ६ फरवरी सन् १९५१ को अचानक ही आपका स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास के पूर्व मालवाड़ा से विहार कर अपनी जन्मभूमि वांकड़िया बड़गाम जाने हेतु विहार किया। गाँव की सीमा पर मांगलिक सुनाने के बाद मालवाड़ा संघ की आग्रहपूर्ण विनती "हमारे समाज में जो मतभेद चल रहा है, उसको सुलझाने के लिये आपको पुनः मालवाड़ा पधारना होगा।" वापस मालवाड़ा पधारे, समाज का भेद मिटाकर एकीकरण किया। कुछ ही दिनों पश्चात् आपका वहीं स्वर्गवास हो गया। यही कारण है कि मालवाड़ा का जैन संघ तब से लेकर आज तक सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् आचार्य श्री जिनमणिसागर जी महाराज की जय उद्घोष करता आ रहा है।
तपागच्छीय आचार्य श्री विजयमुनिचन्द्रसूरि जी महाराज की प्रेरणा व प्रयत्न से वांकड़िया बड़गाम में व्याख्यान कक्ष के पाट के दायीं ओर आचार्यश्री का तैल चित्र लगा हुआ है। (आपके जीवनवृत्त तथा कृतित्व पर एक पुस्तक लिखी जा रही है।)
आप योगसाधक थे। आपको दैविक शक्तियाँ भी प्राप्त थीं। संवत् १९९६ फलौदी के चातुर्मास में उपाध्याय भुवनविजय जी (भुवनतिलकसूरि) के एक शिष्य रत्नविजय आवेश से ग्रस्त थे। आवेश आने पर ५-७ व्यक्ति भी उनको संभाल नहीं पाते थे। वही रत्नविजय जब उपाध्याय मणिसागर जी के पास आए और उनके दृष्टिपात से ही वह आवेश पीड़ा सदा के लिये शान्त हो गई।
गाँधीजी के स्वदेशी वस्त्र आन्दोलन का प्रभाव पड़ने के कारण उन्होंने आजीवन स्वदेशी मोटा वस्त्र ही धारण किया। सिद्धान्तों के पारगामी विद्वान् थे, शास्त्र चर्चा में दुर्घर्ष वादी थे, विशुद्ध चारित्रपालक और खरतरगच्छ की रक्षा के लिये सुजाग्रत प्रहरी थे। एक ही पात्र में समस्त गोचरी लाकर चूरकर एक ही समय खाने वाले चारित्रपात्र थे।
इनके शिष्य उपाध्याय विनयसागर का क्रान्तिकारी विचारों के कारण संघ से मतभेद हो गया और दादा जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी समारोह, अजमेर में मंच पर अपने विचार प्रस्तुत कर २१ मई, १९५६ को पृथक् होकर गृहस्थ बन गये। प्राकृत भाषा, पुरातत्त्व तथा आगम साहित्य में रुचि होने से
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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