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दूसरे ही दिन विज्ञप्ति निकाल कर शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया, पर निर्धारित तिथि से पूर्व ही मुनि चौथमल जी अपने शिष्य सहित विहार कर गये। मणिसागर जी चुप न बैठे उन्होंने आगमानुसार मुंहपत्ति निर्णय और जाहिर उद्घोषणा नं० १-२-३ पुस्तक लिख कर प्रकाशित करवा दी।
वर्तमान में हिन्दी भाषा में जैनागमों के प्रकाशन की उपयोगिता और जनता का विशेष उपकार ज्ञात कर जैन प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना करवाई और कोटा से ७-८ आगमों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाये । गुरुजी की वृद्धावस्था, पक्षाघात और प्रकाशन कार्य के हेतु आप १४ वर्ष कोटा-छबड़ा के आस-पास विचरे। सं० १९९४ पौष सुदि ६ के दिन कोटा में गुरुवर्य महोपाध्याय श्री सुमतिसागर जी का अकस्मात ही हृदयगति अवरुद्ध हो जाने से स्वर्गवास हो गया। फलतः त्यागी जीवन के लिए प्रकाशन-व्यवस्था आदि को बन्धन ज्ञात कर सब कुछ छोड़ कर कोटा से विहार कर दिया। केशरिया जी की यात्रा कर आबू में योगिराज श्री शान्तिविजय जी के पास गये। वहाँ एक वर्ष रहे। रात्रि में घण्टों गुप्त साधना व एकान्त वार्तालाप करते। योगिराज ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया। आबू से आप लोहावट पधारे और अपने काका गुरु श्री जिनहरिसागरसूरि जी से प्रेमपूर्वक मिले। फलौदी चातुर्मास में वस्तीमल झाबक को दीक्षित कर विनयसागर बनाना पड़ा क्योंकि वस्तीमल मणिसागर जी से ही दीक्षा लेने को कृतप्रतिज्ञ था।
आचार्य जिनहरिसागरसूरि जी और वीरपुत्र आनन्दसागर जी के पारस्परिक मतभेद को मिटाकर गच्छ में ऐक्य स्थापित करने के लिए आपने सत्प्रयत्न कर, फलौदी में बृहत्सम्मेलन बुलाकर संगठन स्थापित किया।
कंवलागच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दर जी ने पुरुषों की सभा में साध्वी के व्याख्यान सम्बन्धी चर्चात्मक पुस्तक प्रकाशित की तो आपने उसके उत्तर में जैन ध्वज के २० अंकों में उत्तर दिया जो "साध्वी व्याख्यान निर्णय" नाम से पुस्तक प्रकाशित हुई। आपकी निम्नलिखित अन्य पुस्तकें हैं : देवार्चनएक दृष्टि; क्या पृथ्वी स्थिर है?।
आपने उपधान तप की आवश्यकता अनुभव कर छ: उपधान तप करवाए। पहला उपधान तप सं० १९९८ में जयपुर में श्री घासीलाल जी माँगीलाल जी गोलेछा की ओर से हुआ। श्री सुखसागर जी के समुदाय में यह पहला उपधान तप था। यह उपधान तप श्री नथमल जी के कटले में हुआ था। श्री कल्याणमल जी गोलेछा और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सज्जनबाई दोनों ही उपधान करने वालों में थे। श्री कल्याणमल जी गोलेछा को बड़ी कठिनता से समझाकर उनकी धर्मपत्नी सज्जनबाई की दीक्षा संवत् १९९९ में अपने ही कर-कमलों से प्रदान कर सज्जनश्री नाम प्रदान किया था। यही सज्जनश्री जी भविष्य में प्रवर्तिनी पदधारिका बनीं और उनके सम्मान में श्रमणी नामक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ।
संवत् २००० का चातुर्मास बीकानेर हुआ। वहाँ दूसरा उपधान स्व० श्री मोहनलाल जी दफ्तरी की धर्मपत्नी वरजीबाई ने करवाया था। (गणि श्री महिमाप्रभसागर जी महाराज उन्हीं के पुत्र हैं।)
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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