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सुनकर दाक्षिण्यता के समुद्र एवं हमेशा परोपकार-परायण तथा श्री आर्य सुहस्तिसूरि, श्री वज्रस्वामी, श्री अभयदेवसूरि, श्री जिनदत्तसूरि आदि अनेकों युगप्रधानाचार्यों के चरित्र तुल्य चरित्र (आचरण) से जिन्होंने अच्छी कीर्ति उपार्जन की है, ऐसे आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने 'संघ की विज्ञप्ति माननी ही चाहिए' क्योंकि आवश्यकादि शास्त्रकारों का कथन है कि
जो अवमन्नइ संघं पावो थोवं पि माणमयलित्तो।
सो अप्पाणं बोलइ दुक्खमहासागरे भीमे ॥ [जो पापी मनुष्य मान-मद में लिप्त होकर श्रीसंघ का थोड़ा भी अनादर करता है, वह अपनी आत्मा को भयंकर दु:ख के समुद्र में डुबाता है।]
सिरिसमणसंघआसायणाओ पाविंति जं दुहं जीवा।
तं साहिउं समत्थो जइ परि भयवं जणो होइ॥ [श्री श्रमण संघ की अवज्ञा-आशातना से नाना प्रकार के जिन दुःखों को जीव पाते हैं, उनको कहने में वही समर्थ हो सकता है जो सम्पूर्ण ज्ञानी केवली हो।]
तित्थपणामं काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं।
सव्वेसिं सन्नीणं जोयणनीहारिणा भयवं ॥ [तीर्थंकर देव भगवान् तीर्थ (संघ) को प्रणाम करके एक योजन प्रमाण भूमि में बराबर सुनाई दे सके एवं सभी प्राणी मात्र अपनी-अपनी भाषा में समझ सके वैसे साधारण शब्दों में धर्मदशना देते
तप्पुव्विया अरहया पूइयपूया य विणयकम्मं च।
कयकिच्चोऽपि जह कह कहेइ नमए तहा तित्थं ॥ [अरहंत भगवंत उसी तीर्थ स्वरूप संघ में से होते हैं अतः संघ को नमस्कार करना पूजितपूजा यानि इन्द्रादिकों से पूजित तीर्थंकर देवों द्वारा संघ का पूजा एवं विनयकर्म है, यदि ऐसा न हो तो ये तीर्थंकर देव कृतकृत्य होकर भी धर्मोपदेश क्यों दें? और तीर्थ को नमस्कार क्यों करें?]
यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठ ते , यं तीर्थ कथयन्ति पावनतया येनास्ति नान्यः समः। यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छु भं जायते,
स्फूर्तिर्यस्य परा वसन्ति च गुणा यस्मिन् स संघोऽर्च्यताम्॥ [हे भव्यात्माओं! जिस संघ की मति संसार के जंजाल को हटाने की लालसा वाली है, पवित्रता के कारण विद्वान् लोग जिसको तीर्थ कहते हैं। जिसके समान दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। जिसको भगवान् तीर्थंकर भी नमस्कार करते हैं। जिससे सत्पुरुषों को शुभ की प्राप्ति होती है। जिसमें अपूर्व स्फूर्ति है जिसमें अनेकों गुणों का निवास है, उस संघ की पूजा करो।]
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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