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कीर्तिरत्नसूरि के एक शिष्य कल्याणचन्द्र गणि द्वारा रचित कीर्तिरत्नसूरिचउपइ, कीर्तिरत्नसूरिगीत आदि कृतियाँ मिलती हैं। इनका रचनाकाल वि०सं० १५२५ के पश्चात् माना जाता है। कीर्तिरत्नसूरि के एक अन्य शिष्य गुणरत्न हुए, जिनके द्वारा रचित कोई भी कृति नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य पद्ममन्दिर गणि द्वारा रचित जालौरनवफणापार्श्वनाथस्तवन (वि०सं० १५४३), गुणरत्नसूरिविवाहलो (वि०सं० १५४५), वरकाणापार्श्वस्तोत्र, देवतिलकउपाध्यायचउपइ आदि कुछ रचनायें प्राप्त होती हैं।
कीर्तिरत्नसूरि के एक शिष्य हर्षविशाल की परम्परा में हुए लब्धिकल्लोल द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं, इनमें जिनचन्द्रसूरिअकबरप्रतिबोधरास (वि०सं० १६४८), रिपुमर्दनरास (वि०सं० १६४९), कृतकर्मराजर्षिचौपाई (वि०सं० १६६५) प्रमुख हैं। लब्धिकल्लोल गणि के एक शिष्य गंगादास ने वि०सं० १६७१ में वङ्कचूलरास की रचना की। लब्धिकल्लोल के दूसरे शिष्य ललितकीर्ति द्वारा रचित शिशुपाल वध टीका विशिष्ट कृति प्राप्त है। इनके शिष्य पुण्यहर्ष द्वारा रचित थावच्चासुगसेलगचौपाई (वि०सं० १७०३), अरहन्नकचौपाई (वि०सं० १७३२), नेमिनाथफागु आदि उल्लेखनीय हैं। पुण्यहर्ष के शिष्य अभयकुशल द्वारा वि०सं० १७०९ में रचित जिनपालितजिनरक्षितरास, वि०सं० १७३७ में रचित ऋषभदत्तरूपवती-चौपाई, हरिबलचौपाई आदि कुछ कृतियाँ मिलती हैं। वि०सं० १७४४ श्रीपालचरित के रचनाकार पं० चारित्रउदय भी इसी शाखा में हुए जो जयसौभाग्य गणि के शिष्य थे।
कीर्तिरत्नसूरि के प्रमुख शिष्य उपा० लावण्यशील की परम्परा में हुए वाचक चन्द्रकीर्ति के शिष्य उपाध्याय सुमतिरंग द्वारा रचित कई कृतियाँ मिलती हैं इनमें योगशास्त्र (वि०सं० १७२०), प्रबोधचिन्तामणि (वि०सं० १७२२), हरिकेशीसाधुसंधि (वि०सं० १७२७), जम्बूस्वामीचौपाई (वि०सं० १७२९) मुख्य हैं। इसी परम्परा में आगे चलकर हुए अमृतसुन्दर के शिष्य जयकीर्ति ने वि०सं० १८६८ में श्रीपालचरित (संस्कृत गद्य) की रचना की।
क्रमांक १७ से यह परम्परा दो भागों में बंट जाती है-महिमाहेम की परम्परा और पं० जयकीति की परम्परा। महिमाहेम की परम्परा में उनके बाद क्रमशः पं० हर्षविजय और पं० कल्याणसागर हुए। इनके पश्चात् यह परम्परा समाप्त हो गयी।
पं० जयकीर्ति के शिष्य प्रतापचन्द के पश्चात् यह परम्परा पुनः दो भागों में बंट जाती है-प्रथम पं० अभयचन्द की परम्परा और द्वितीय पं० दानविशाल की परम्परा । दानविशाल परम्परा के अंतिम कड़ी में पं० प्रीतिविजय (प्यारेलाल) थे। इनका ऊपर उल्लेख आ चुका है। ___पं० अभयचन्द की परम्परा में २२ वें क्रमांक में आये जिनकृपाचन्द्रसूरि २०वीं शताब्दी के प्रभावक जैनाचार्य थे। इन्होंने परम्परा में शिथिलाचार को देखते हुए वि०सं० १९४१ में क्रियोद्धार किया। वि०सं० १९७२ में मुम्बई में आपको आचार्य पद प्राप्त हुआ और वि०सं० १९९४ में पालिताना में आप स्वर्गवासी हुए। आपकी परम्परा का परिचय संविनसाधु परम्परा के अन्तर्गत विस्तार से दिया गया है अतः यहाँ उसकी पुनरावृत्ति अनावश्यक है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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