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देकर स्वधर्मियों को बुलाया गया था। सभी आगन्तुक लोगों को मधुर मिष्टान्न भोजन-दान से सन्तुष्ट किया था। पर्याप्त मात्रा में धन बाँटा गया था। अनेक प्रकार के नृत्य-नाटकों का आयोजन करके लोगों का मनोरंजन किया गया था। इस उत्सव में व्यापारी-व्यवहारी, राजा-रंक सभी सम्मिलित हुए थे। जिसमें पाटण का संघ समुदाय बहुत अधिक प्रमाण में था। इस अवसर पर सेठ तेजपाल की बनवाई हुई श्री युगादिदेव आदि पाषाणमय तथा सर्वधातुमय अनेकों जिन प्रतिमाओं की एवं अन्य अनेक श्रावकों की बनवाई हुई आचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी, श्री जिनचन्द्रसूरि जी तथा कपर्दियक्ष, क्षेत्रपाल, अम्बिका आदि अधिष्ठायक देव-देवियों की भी प्रतिमाएँ और शत्रुजय पहाड़ के उच्चशिखर पर बने हुए उस विशाल मन्दिरों के योग्य ध्वजदण्ड की प्रतिष्ठा पूज्यश्री ने की थी। उस महोत्सव में साह धीनाजी के पुत्र खेतसिंह आदि सुश्रावकों ने इन्द्र पद, श्री युगादिदेव मुखोद्घाटनादि निमित्त मालाग्रहण आदि विविध धार्मिक कार्यों में खुले हाथ से खर्च करके अपने धन को सफल किया। इसके बाद मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी के दिन मालारोपण, सम्यक्त्वारोपण, सामायिकारोपण, परिग्रह-परिमाण आदि नन्दि महामहोत्सव बड़े विस्तार से किया गया।
९४. इसके बाद विक्रम सं० १३८० में श्रीमाल कुलोत्पन्न, गंगा प्रवाह की तरह निर्मल अन्त:करण वाले, श्री जिनशासन को दिपाने में प्रवीण, पूर्वकाल में श्री फलवर्द्धिका महातीर्थ की विस्तार से यात्रा महोत्सव करने वाले, अत्यद्भुत भाग्य और प्रताप के कारण लंकेश्वर (रावण) के समान भारत विख्यात, जिसने समस्त पृथ्वी का दान करने वालों को भी पीछे हटा दिये हैं ऐसे महादानी-महाभाग्यशाली, दिल्ली निवासी प्रसिद्ध सेठ श्री हरुजी के पुत्ररत्न सेठ रयपति ने दिल्लीपति बादशाह गयासुद्दीन तुगलक के दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त अपने पुत्र धर्मसिंह के द्वारा प्रधान मंत्री श्री नेब साहब की सहायता से इस आशय का एक शाही-फरमान निकलवाया कि "श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की अध्यक्षता में सेठ रयपति श्रावक का संघ श्री शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थ-यात्रा के निमित्त जहाँ-जहाँ जाये, वहाँवहाँ इसे सभी प्रान्तीय सरकारें आवश्यक मदद दें और संघ की यात्रा में बाधा पहुँचाने वाले लोगों को दण्ड दिया जाये।" यह फरमान सभी अमीर-उमरावों को आश्चर्य देने वाला था। उसके पश्चात् सेठ ने शत्रुजय-गिरनार आदि महातीर्थों की यात्रा करने के हेतु अपने आदमियों को पाटण भेजकर महाराजश्री से प्रार्थना की।
___ महाराज ने सेठ के सन्देश को सुनकर, अच्छी तरह सोच-समझ कर तीर्थयात्रा का आदेश दे दिया। पूज्यश्री के आदेश को सुनकर सेठ रयपति बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्र महणसिंह, धर्मसिंह, शिवराज, अभयचन्द्र तथा पौत्र भीष्म एवं भ्राता सेठ जवणपाल आदि उत्तम परिवारवृन्द को साथ लेकर के पूज्यश्री की आज्ञा के अनुसार दिल्ली निवासी श्रावकों में मुख्य मंत्रीदलीय कुलोत्पन्न सेठ जवणपाल, देव-गुरु-भक्त श्री श्रीमालकुलभूषण सेठ भोजा जी, साह छीतम, ठ० फेरू तथा धामइन ग्राम निवासी सा० रूपा, सा० बीजा आदि, पंचउली सेठ क्षेमंधर आदि, लूणी बड़ी ग्राम के निवासी श्रावकों को इकट्ठा करके और दिल्ली के समीपवर्ती अन्य अनेकों ग्रामवासियों को बुलाकर दिल्ली से विदा होने के समय का उत्सव मनाया। उस समय अपने पुत्र श्रेष्ठिवर्य धर्मसिंह के प्रयत्न से शाही
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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