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९२. इस प्रकार युगप्रधान राज्य को पाकर श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने महामिथ्यात्व रूप शत्रु के उच्चाटन के लिए दिग्विजय की कामना से भीमपल्ली जाने के लिए विहार किया। वहाँ पर वीरदेव श्रावक ने अगुआ होकर पूज्यश्री का प्रवेश महोत्सव बड़े आडम्बर से करवाया। महाराज ने प्रथम चातुर्मास भीमपल्ली में ही किया। इसके बाद सं० १३७८ माघ सुदि तृतीया के दिन भीमपल्ली के सेठ वीरदेव आदि समस्त समुदाय बुलाये हुए श्री पाटण के श्रावक वृन्द के साथ सकल जन-मन को चमत्कारी, दीक्षा-बृहद्दीक्षा, माला-ग्रहण आदि नन्दी महोत्सव किया। इस महोत्सव में साधर्मिक वात्सल्य, श्रीसंघ-पूजा आदि अनेक प्रभावनाओं के कार्य हुए। उस महोत्सव में श्री राजेन्द्रचन्द्राचाय ने माला ग्रहण की। देवप्रभ मुनि को दीक्षा दी। वाचनाचार्य हेमभूषण गणि को अभिषेक (उपाध्याय) पद दिया। पं० मुनिचन्द्र गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया।
उसी वर्ष अपने प्रतिज्ञात कार्य को पूर्ण करने में प्रवीण पूज्यश्री ने अपने ज्ञान-ध्यान के बल से सकल गच्छ के हित-साधन में सदैव उद्यत श्री विवेकसमुद्रोपाध्याय जी की आयुः समाप्ति का समय जान कर भीमपल्ली से पाटण की ओर विहार किया। पाटण में ज्येष्ठ वदि चतुर्दशी के दिन शरीर में कोई व्याधि न होने पर भी विवेकसमुद्रोपाध्याय जी को चतुर्विध संघ के साथ मिथ्यादुष्कृत दिलवाया
और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अनशन करवाया। तत्पश्चात् पूज्यश्री के चरण-कमल का ध्यान करते हुये पंच परमेष्ठी नमस्कार रूप महामंत्र का जप करते हुए, अनेक प्रकार की आराधनाओं का श्रवण रूप अमृतपान करते हुए, श्रीसंघ द्वारा की हुई शासन प्रभावनाओं को अपने कान से सुनते हुए विवेकसमुद्रोपाध्याय जी ज्येष्ठ सुदि द्वितीया के दिन मानो देवगुरु बृहस्पति को जीतने के लिए स्वर्ग पधार गये। पाटण के श्रावक वृन्द ने उनके शव को श्मशान ले जाने के लिए सुन्दर सा विमान बना कर सब मनुष्यों के मन में चमत्कार पैदा करने वाला निर्वाण महोत्सव किया। इसके बाद पूज्यश्री के उपदेश से श्रीसंघ ने विवेकसमुद्रोपाध्याय जी की स्मृति के लिए एक स्तूप बनवाया और आषाढ़ सुदि त्रयोदशी के दिन बड़े विस्तार से उस पर प्रतिष्ठा वासक्षेप किया। विवेकसमुद्रोपाध्याय जी ने समाज का बड़ा उपकार किया था। इन्होंने ही आचार्यश्री के गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरि जी, दिवाकराचार्य, श्री राजशेखराचार्य, वा० राजदर्शन गणि, वा० सर्वराज गणि आदि अनेक मुनि महात्माओं को आगमादि शास्त्र पढ़ाये थे एवं तीन बार हैमव्याकरण बृहद्वृत्ति नामक महाग्रंथ पढ़ाया था जो अठारह हजार अनुष्टप् श्लोक प्रमाण है। इसके अतिरिक्त ३६००० श्लोक प्रमाण श्री न्याय महातर्क आदि समस्त शास्त्रों का अभ्यास भी अनेकों मुनियों को इन्होंने करवाया था। इसके बाद वहाँ श्रीसंघ की ओर से की गई प्रार्थना स्वीकार कर पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने दूसरा चातुर्मास पाटण में किया।
९३. वहाँ पर सं० १३७९ में मिगसर वदि पंचमी के दिन श्री शांतिनाथ देव के विधि-चैत्य की महामहोत्सव के साथ विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में अनेक प्रान्तों से आकर अगणित नर-नारी सम्मिलित हुए थे। यह उत्सव दस दिन तक मनाया गया था। इसके खर्च का कुल भार जिनशासन की प्रभावना करने में उदार चरित्र वाले, दाक्षिण्य, धैर्य, औदार्यादि अनेक गुण श्रेणी से अलंकृत सेठ श्री तेजपाल ने उठाया था। सेठ के भाई रुद्रपाल ने भी इसमें काफी मदद दी थी। ये
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खरतरगच्छ का इतिहास. प्रथम-खण्ड
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