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________________ मैवं मंस्था बहुपरिकरो जनो जगति पूज्यतां याति। येन घनतनययुक्तापि शूकरी गूथमश्राति॥ [अर्थात् आप यह न समझिये कि अधिक परिवार वाला आदमी जगत् में अवश्य ही पूज्य हो जाता है। पुत्र-पौत्रों के अधिक परिवार को साथ रखती हुई सूकरी मैले को खाती है।]" यह कथन धनदेव को नहीं भाया। प्रत्युत कर्ण-कटु मालूम हुआ। किसी को अच्छा लगे या न लगे, गुरुजनों को तो युक्तियुक्त ही कहना चाहिए। गुरु महाराज के ये वचन वहाँ बैठे हुए कतिपय विवेकशील पुरुषों को बड़े अच्छे मालूम हुए। महाराज श्री नागपुर (नागौर) से अजमेर गये। वहाँ पर ठाकुर आशाधर, साधारण, रासल आदि श्रावक इनके अनन्य भक्त थे। श्री जिनदत्तसूरि प्रतिदिन वहाँ पर बाहड़देव के मन्दिर में देववन्दना के लिए जाया करते थे। एक दिन वहाँ पर मन्दिराध्यक्ष चैत्यवासी आचार्य आ गया। वह इन महाराज से (दीक्षा-पर्याय आदि) प्रत्येक बात में छोटा था, तथापि मन्दिर में इनके साथ शिष्टाचार का पालन नहीं करता था। ठाकुर आशाधर आदि श्रावकों ने महाराज से कहा-"यहाँ आने से क्या फायदा, जबकि आपके साथ युक्त सद्व्यवहार नहीं बरता जाय।" उसी दिन से (मन्दिर में जाकर किया जाने वाला देव-वन्दना आदि) व्यवहार रुक गया। इसके बाद सब श्रावकों का एक समूह अजमेर के तत्कालीन राजा अर्णोराज के पास गया और राजा से निवेदन किया कि "हमारे गुरु श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज यहाँ आपकी नगरी में पधारे हैं।" राजा ने कहा-"यदि आये हैं तो बड़े आनन्द की बात है, आप लोग मेरे पास किस कार्य के लिए आये हैं। उस काम को कहो।" श्रावक बोले-"महाराज, हमको एक ऐसे भूमि खण्ड की जरूरत है, जहाँ पर हम लोग देव-मन्दिर, धर्मस्थान और अपने कुटुम्ब के लिये कुछ घर बनवा लें।" उनकी यह प्रार्थना सुन कर राजा ने कहा-"शहर से दक्षिण की ओर जो पहाड़ है उसके ऊपर और नीचे जो तुम्हारे जंचे सो बनवा लो। तुम्हारे गुरुजी के दर्शन हम भी करेंगे।" श्रावकों ने यह सारा वृत्तान्त गुरुजी से आकर कहा। सुनकर गुरुजी कहने लगे-"जबकि राजा स्वयं ही दर्शनों की अभिलाषा प्रकट करता है, तो आप लोग उनको अवश्य बुलावें। उनके यहाँ आने में अनेक लाभ हैं।" अच्छा दिन देखकर श्रावक लोगों ने राजा को आमंत्रित किया। राजा साहब आये और गुरुजी को सम्मान के साथ वन्दना की। आचार्य श्री ने राजा को इस प्रकार आशीर्वाद दिया श्रिये कृतनतानन्दा विशेषवृषसंगताः। भवन्तु भवतां भूप! ब्रह्मश्रीधरशंकराः॥ [हे राजन्! भक्तों को आनन्द देने वाले क्रम से गरुड़, शेषनाग और बैल पर चढ़ने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आपको कल्याणकारी हों।] महाराजश्री की विद्वत्ता देख कर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा-"भगवन् ! सदा हमारे यहाँ ही रहिये।" गुरुजी बोले-"राजन् ! आपने कहा तो ठीक, परन्तु हम साधुओं की मर्यादा ऐसी है कि हमें (४४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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