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________________ एक स्थान पर अधिक दिन नहीं ठहरना चाहिए। सर्वसाधारण के उपकार की दृष्टि से हमें सर्वत्र विहार करना पड़ता है। हाँ हम यहाँ पर सदा आते-जाते रहेंगे, जिससे कि आपको मानसिक सन्तोष होता रहे।" आचार्य श्री के साथ वार्तालाप से अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ राजा वहाँ से उठकर अपने स्थान को गया। उसके जाने के बाद पूज्यश्री ठाकुर आशाधर से बोले इदमन्तरमुपकृतये प्रकृतिचला यावदस्ति संपदियम्। विपदि नियतोदयायां पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः॥ _ [स्वभाव से ही चंचल, यह लक्ष्मी जब तक पास में है, तब तक परोपकार जरूर करना चाहिए। विपत्ति का आना निश्चित है। विपत्ति आने पर धोखा करते रहो तो फिर परोपकार करने का मौका हाथ आना कठिन है। विपत्ति संपत्ति में यही अंतर है।] इसलिए आपको स्तंभन, शत्रुजय और गिरिनार के मन्दिरों के समान श्री पार्श्वनाथ स्वामी, श्री ऋषभदेव स्वामी तथा श्री नेमिनाथ स्वामी के मन्दिर बनवाने चाहिए। उन मन्दिरों के ऊपर अम्बिका देवी की छतरी और नीचे गणधर आदि के स्थान बनाने चाहिए। आप सम्पत्तिशाली हैं। लक्ष्मी के सदुपयोग का यह अच्छा अवसर है। आप इससे लाभ उठाइये। लक्ष्मी का सर्वदा स्थायी रहना बड़ा मुश्किल है। ३३. आशाधर ठाकुर को इस प्रकार कर्त्तव्य का उपदेश देकर सूरीश्वर जी शुभ शकुन देखकर वागड़ देश की ओर विहार कर गए। पहले से ही वहाँ के लोग श्री जिनवल्लभसूरि जी महाराज के अनन्य भक्त थे। उनका देवलोकगमन सुन कर वहाँ वालों को बड़ा खेद हुआ था, परन्तु जब उन्होंने सुना कि उनके पाट पर विराजमान श्री जिनदत्तसूरि जी बड़े ही ज्ञानी, ध्यानी तथा महावीर स्वामी के वदनारविन्द से निकले हुए और सुधर्मा स्वामी गणधर रचित सिद्धान्तों के बड़े अच्छे ज्ञाता हैं, तो उनके आनन्द की कोई सीमा न रही। जब लोगों ने आकर यह समाचार सुनाया कि क्रियाकुशल, युगप्रधान, तीर्थंकरों के समान सद्गुरु श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज अजमेर से विहार करके हमारी तरफ आ रहे हैं, तो लोग उनके दर्शनों के लिए बड़े ही आतुर हो उठे। जब महाराज वहाँ पधारे तो उनके दर्शन करके लोगों को हार्दिक सन्तोष हुआ। श्रावक लोगों ने महाराज से अनेक प्रकार से प्रश्न किये। सूरि जी ने केवलज्ञानी की तरह उन सब को यथोचित्त उत्तर दिया। महाराज के उपदेश से प्रभावित होकर कई लोगों ने सम्यक्त्व, कइयों ने देशविरति तथा कइयों ने सर्वविरति व्रत धारण किया। सुनते हैं कि वहाँ पर महाराज ने बावन साध्वियाँ और अनेक साधुओं को दीक्षा दी। ३४. उसी समय साधु जिनशेखर को उपाध्याय पद देकर कतिपय मुनियों के साथ विहार करा कर रुद्रपल्ली (वर्तमान रुदौली, उत्तरप्रदेश) भेज दिया। वहाँ पर वह अपने नाती-गोतियों (स्वजन वर्ग) की श्रद्धा वृद्धि करने के लिए तप करने में प्रवृत्त हो गया। चैत्यवासी जयदेवाचार्य ने अपने स्थान पर आने-जाने वाले लोगों से सुना कि जिनवल्लभसरि जी के पाट पर आरूढ सर्व गुण सम्पन्न, श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज आजकल हमारे इस (बागड़) प्रान्त में आये हुए हैं। उन्होंने सोचा इनका आना हमारे लिए बड़ा ही कल्याणकारी है। स्वर्गीय श्री जिनवल्लभसूरि जी ने चैत्यवास को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४५) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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