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त्याग कर श्री अभयदेवसूरि जी के पास वसति मार्ग स्वीकार किया था। तभी से हमारा मानसिक झुकाव वसति मार्ग की ओर है। वे अपने परिवार के साथ श्री जिनदत्तसूरि जी के दर्शन एवं वन्दना के लिए उनके पास आये। वन्दनादि शिष्टाचार के बाद सिद्धान्तानुसार मधुर वचनों से सूरि जी ने उनके साथ कुछ देर तक संभाषण किया। महाराज के मधुर वचनों से मुग्ध हुए जयदेवाचार्य ने अपने मन में सोचा कि-"जन्म-जन्मान्तर में हमारे गुरु ये ही हो।" शुभ दिनों में श्री जयदेवाचार्य ने उनके पास चारित्रोपसंपदा ग्रहण की। शास्त्रों में वर्णित सनत्कुमार चक्रवर्ती ने जिस प्रकार त्याग के बाद साम्राज्य-सम्पत्ति की ओर मुँह मोड़ कर नहीं देखा, वैसे ही श्री जयदेवाचार्य ने मठ, मन्दिर, उद्यान, कोश, खजाना आदि को छोड़कर उनकी तरफ जरा भी लक्ष्य नहीं किया।
श्री जिनप्रभाचार्य नाम के एक चैत्यवासी आचार्य रमल विद्या के अच्छे जानकार होने से लोगों में खूब प्रसिद्ध हो चुके थे। वे घूमते-फिरते किसी समय तुर्कों के राज्य में चले गए। वहाँ पर उनको ज्ञानी समझ कर एक यवन ने पूछा-'मेरे हाथ में क्या वस्तु है?" सूरि जी ने गणित करके बतलाया कि-"तुम्हारे हाथ में बादाम, खड़िया मिट्टी का टुकड़ा और उसके साथ एक बाल भी है।" उसको बाल का पता नहीं था। जब मुट्ठी खोलकर देखा तो मृत्तिका खण्ड के साथ एक केश भी है। इस ज्ञान-बल को देख कर वह तुर्क बड़ा प्रसन्न हुआ और सूरि जी का हाथ पकड़ कर चूमता हुआ अपनी मातृ भाषा में "चंगा-चंगा" ऐसे बोला। (वह मुसलमान कोई बड़ा आदमी था। उसने चाहा कि इस साधु को अपने साथ में रखू) आचार्य ने सोचा-"ये यवन लोग प्रायः दुष्ट विश्वासघाती हुआ करते हैं। इनका कोई भरोसा नहीं, कदाचित् मुझे मार डालें।" इस कारण आचार्य जी वहाँ से रातोंरात भाग निकले और क्रमशः अपने देश में आ गये। देश में आने पर चैत्यवासियों में प्रसिद्ध श्री जयदेवाचार्य को श्री जिनदत्तसूरि जी के पास वसतिमार्ग के आश्रित हुए जान कर उनकी भी इच्छा वसतिमार्ग सेवन की हुई, परन्तु वसतिमार्ग के नियमों को असिधारा के समान कठिन समझ कर मन में झिझक गये। वसतिमार्ग के आचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी को अपना गुरु बनाया जाय या नहीं? इस बात का निश्चय करने के लिए उन्होंने रमल का पाशा डाला। प्रथम बार पाशा डालने पर गणित करने से श्री जिनदत्तसूरि जी का नाम आया। दूसरी बार भी पाशा डालने पर उन्हीं का नाम आया। तीसरी बार जब गणित करने लगे तो आकाश से एक अग्नि का गोला गिरा और आकाशवाणी हुई-"यदि तुम्हें शुद्ध धर्म मार्ग से प्रयोजन है तो क्यों बारम्बार गणित करते हो? इन्हीं को अपना गुरु मानकर धर्माचरण करो।" इस वाणी से संशय रहित होकर जिनप्रभाचार्य ने श्री जिनदत्तसूरि जी से चारित्रोपसंपदा ग्रहण की और अपनी आत्मा को सन्तोष दिया।
उन्हीं दिनों में वहाँ रहते हुए अतिशय ज्ञानी श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज के पास आकर चैत्यवासी श्री विमलचन्द्र गणि ने अपनी सम्प्रदाय के दो आचार्यों को उनके अनुयायी बने जानकर स्वयं भी वसतिमार्ग को स्वीकार किया। उसी समय जिनरक्षित और शीलभद्र नामक दो भ्राताओं ने भी अपनी माता के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। वैसे ही स्थिरचंद्र और वरदत्त नाम के दो भाइयों ने भी प्रव्रज्या स्वीकार की।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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