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वंश भूषण अपने पुत्ररत्न श्रीवत्स सहित ठ० अचलसिंह श्रावक ने पूज्यश्री की और सारे संघ की बड़ी भारी सहायता की। इस प्रकार यात्रा में कई मास बीत जाने के कारण यहाँ पहुँचने पर चौमासा लग गया। संघ समुदाय के लोगों को विदा करके श्री अचलसिंहादि श्रावक खण्डासराय में ही रहे और पूज्यश्री ने भी वहीं चातुर्मास किया।
इस समय पूज्य आचार्यश्री ने सुलतान के कहने से तथा संघ के अनुरोध से "रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं" इत्यादि सिद्धान्त वाक्यों का स्मरण करते हुए श्रावण महीने में चौमासे के बीच में ही संघ के संरक्षक ठक्कुर अचलसिंह, सा० रुद्रपाल आदि समग्र बागड़ देश के संघ को साथ लेकर मथुरा की यात्रा को प्रस्थान किया। क्रमशः वहाँ पहुँच कर श्री सुपार्श्व, श्री पार्श्व, श्री महावीर स्वामी आदि तीर्थंकरों की यात्रा बड़े ठाठ से की। मथुरा में श्रीसंघ ने बेरोक-टोक अन्नसत्र, साधर्मिक वात्सल्य आदि कार्यों से शासन की बड़ी प्रभावना की। वहाँ से लौटकर संघ सहित पूज्यश्री ने योगिनीपुर आकर शेष चातुर्मास को खण्डासराय में पूरा किया। वहाँ पर रहते हुए चातुर्मास में स्वर्गीय मणिधारी आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज के स्तूप की बड़े विस्तार से दो बार यात्रा की।
९०. यह चातुर्मास समाप्त होने पर पूज्यश्री ने स्वशरीर में कम्प रोग जनित बाधा को देखकर, अपने ज्ञान-ध्यान के बल से अपना अन्तिम समय निकट आया जानकर, अपने हाथ से दीक्षित द्विधा (दोनों ही तरह से) स्व-संतान वाले, अपनी पाटलक्ष्मी के धारण करने योग्य लक्षणों वाले, व्याकरण-न्याय-साहित्य-अलंकार-ज्योतिष आदि शास्त्रों के विचार में चतुर, स्वकीय-परकीय सिद्धान्त समुद्र को तैरने में नाव के समान अपने शिष्यरत्न वाचनाचार्य कुशलकीर्ति गणि को पाट पर स्थापित करना तथा अपने आप निर्धारित उसका नामकरण आदि सर्व-शिक्षासमन्वित एक पत्र लिखकर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य के पास भेजने के लिए विश्वासपात्र श्री देवगुरु आज्ञा पालक ठक्कुर श्री विजयसिंह के हाथ में सौंपा। चौहान कुलभूषण शरणागत की रक्षा के लिए वज्रमय पिंजरे के समान मेड़ता नरेश राणा श्री मालदेव जी का अनुरोध पूर्ण आमंत्रण पाकर पूज्यश्री ने मेड़ता नगर जाने के लिए दिल्ली से विहार किया। मार्ग में आने वाले धामइना, रोहतक आदि मुख्य-मुख्य अनेकों स्थानों के श्रावकों की वन्दना स्वीकार करते हुए श्री कन्यानयन नगर में आकर श्रीमहावीर देव को नमस्कार किया। वहाँ पर पूज्यश्री के शरीर में श्वास और कम्प की व्याधि बढ़ गई। इसी से स्थानीय चतुर्विध संघ के समक्ष मिथ्या दुष्कृत दान देकर फिर से सब प्रकार की शिक्षा से पूर्ण लेख लिखवाकर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य के पास भेजने के लिए अपने विश्वासपात्र प्रवर्तक श्री जयवल्लभ गणि के हाथ में दिया। एक महीने तक कन्यानयनीय समुदाय को सन्तोष देकर श्री नरभट आदि नाना स्थानों के लोगों की वन्दना स्वीकार करते हुए मारवाड़ के प्रसिद्ध नगर मेड़ता पहुँचे। मेड़ता में राणा मालदेव और संघ समुदाय की प्रार्थना से उन लोगों के सन्तोष के लिए चौबीस दिन ठहर कर पूज्य श्री अपने निर्वाण योग्य स्थान समझ कर श्री कोशवाणा नगर पहुँचे। वहाँ पर चतुर्विध संघ से खमत-खामणा करके सं० १३७६ आषाढ़ सुदि नवमी को डेढ़ प्रहर रात गये बाद
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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