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________________ गया है। विक्रम संवत् की ग्यारहवीं शताब्दी में अपने अभ्युदय से लेकर आज भी यह गच्छ जैन धर्म के लोक-कल्याणकारी सिद्धान्तों का पालन कर विश्व के समक्ष एक उज्ज्वल आदर्श उपस्थित कर रहा है। ___खरतरगच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य, उपाध्याय, विद्वान् साधु एवं साध्वियाँ तथा बड़ी संख्या में तन्त्र-मन्त्र के विशेषज्ञ, ज्योतिर्विद, वैद्यक शास्त्र के ज्ञाता यतिजन हो चुके हैं, जिन्होंने न केवल समाजोत्थान बल्कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओं में साहित्य-सृजन कर उसे समृद्ध बनाने में महान् योग दिया है। चैत्यवास का उन्मूलन कर सुविहितमार्ग को पुनः प्रतिष्ठित करना खरतरगच्छीय आचार्यों की सबसे बड़ी देन है। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली में इस गच्छ के महान् आचार्यों के दीक्षा, विहार, साधु-साध्वी समुदाय, स्थानीय श्रावकों के नाम, राजाओं के नाम, प्रतिद्वन्द्वी धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ, तीर्थोद्धार आदि अनेक बातों पर विशद प्रकाश डाला गया है। यहाँ इसी गुर्वावली के आधार पर खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा की एक झलक प्रस्तुत है। वर्धमानसूरि खरतरगच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासी आचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरधरा में सुविहितमार्गीय मुनियों के विहार को सम्भव बनाया। आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा दीक्षित जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनभद्र अपरनाम धनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, धर्मदेव, सहदेव आदि अनेक मुनियों का उल्लेख तो हमें मिलता है, परन्तु इनके द्वारा किसी महिला को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिला है। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली से ज्ञात होता है कि इन्होंने स्वगच्छीय मरुदेवी प्रवर्तिनी को आशापल्ली में उसके संथारा के समय सल्लेखना पाठ सुनाया था। जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों द्वारा धोलका निवासी भक्त वाछिग और उसकी पत्नी बाहड़देवी के पुत्र सोमचन्द्र को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा प्रदान करवाने का उल्लेख मिलता है। यही बालक आगे चलकर जिनदत्तसूरि के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना। जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित साध्वियों का उल्लेख तो नहीं मिलता है, परन्तु इनके समय में भी खरतरगच्छ में साध्वी संघ की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता १. खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खण्ड)-महोपाध्याय विनयसागर, भूमिका पृ० ४-५ २. वही, पृष्ठ ४-५ ३. यह ग्रन्थ मुनि जिनविजय जी के संपादकत्व में सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत १९५६ ई० में प्रकाशित हो चुका है। ४. जिनविजय जी, संपा०-खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ५ ५. जिनविजय जी, वही, पृ० १४-१५ (४००) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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