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जिनवल्लभसूरि का अत्यधिक समय विधिमार्ग के प्रसार में ही व्यतीत हुआ। उनके उपदेशों से गुजरात, राजस्थान और मालवा के अनेक स्थानों पर विधिचैत्यों का निर्माण हुआ । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के कुछ माह पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् सोमचन्द्रगणि को जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभ का पट्टधर बनाया गया ।
जिनदत्तसूरि द्वारा अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख मिलता है । उनके वरदहस्त से बागड़ देश में श्रीमति, जिनमति, पूर्व श्री ज्ञानश्री और जिनश्री को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई । जिनदत्तसूरि अत्यन्त विद्यानुरागी आचार्य थे, इसीलिए उन्होंने अपने गच्छ के साधु-साध्वियों की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया। श्रीमति, जिनमति और पूर्व श्री इन तीन साध्वियों को अन्य स्वगच्छीय मुनियों के साथ उन्होंने अध्ययनार्थ धारा नगरी भेजा था। उनकी ही शिष्या गणिनी शांतिमति ने वि०सं० १२१५ में प्रकरणसंग्रह नामक ग्रन्थ की प्रतिलिपि की, जो जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में सुरक्षित है।
आचार्य जिनदत्तसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् मणिधारी जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ के नायक बने। इनके अल्पकाल के नायकत्व में भी खरतरगच्छ में अनेक साधु-साध्वियों की दीक्षा हुई । वि० सं० १२१४ में इन्होंने त्रिभुवनगिरि में शान्तिनाथ जिनालय पर भव्य महोत्सव के साथ सुवर्णध्वज और कलश का आरोपण किया और साध्वी हेमादेवी को प्रवर्तिनी पर से विभूषित किया । ' वि०सं० २१२१८ में उच्चानगरी में उन्होंने ५ मुनियों के साथ जगश्री, गुणश्री और सरस्वती को साध्वी दीक्षा प्रदान की।' वि०सं० १२२१ में आचार्यश्री ने देवभद्र और उसकी पत्नी को अन्य ४ साधुओं के साथ दीक्षित किया। वि०सं० १२२३ भाद्रपद वदि चतुर्दशी को दिल्ली में आचार्यश्री का स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् आचार्य जिनपतिसूरि को उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित किया गया। जिनपतिसूरि ने वि०सं० १२२७ में उच्चानगरी में धर्मशील और उसकी माता को ५ अन्य व्यक्तियों के साथ दीक्षित किया। इसके पश्चात् वे विहार करते हुए मरुकोट पधारे, जहाँ अजितश्री ने उनसे प्रव्रज्या ली ।' वि०सं० १२२९ में फलवर्धिका में अभयमति, आसमति और श्रीदेवी ने उनसे साध्वीदीक्षा प्राप्त की । यहीं वि०सं० १२३४ में साध्वी गुणश्रीने महत्तरा पद प्राप्त किया और जगदेवी ने साध्वी दीक्षा ली। इसी नगरी में वि०सं० १२४१ धर्मश्री और धर्मदेवी को उन्होंने श्रमणीसंघ में सम्मिलित किया । १ वि०सं० १२४५ में पुष्करणी नगरी में संयमश्री, शान्तमति एवं रत्नमति को साध्वी दीक्षा दी गई। १२ वि०सं० १२५४ में धारा नगरी में
१. जिनविजयजी, संपा०- खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० १५ २. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० १८
४. श्री जैसलमेरदुर्गस्थ जैन ताड़पत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूची - पत्र, संपा० - मुनिपुण्यविजय, क्रमांक १५४, पृ० ५१-५२ । ५. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० २०
६. वही, पृ० २०
७. वही, पृ० २०
९. वही, पृ० २३
१९. वही, पृ० २४
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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३. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० १८
८. वही, पृ० २३
१०. वही, पृ० २४ १२. वही, वही पृ० ३४
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